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भारतीय “क्वीन”

मुझे याद है हम फिल्म “क्वीन” देखकर लौट रहे थे, सभी अपनी अपनी बाइक पर थे! दो दो के ग्रुप में हम फिल्म के कुछ बेहतरीन गाने गुनगुनाते हुए जा रहे थे! मस्ती में हाथों को हवा में फैलाए, किसी आज़ादी का जश्न मानते हुए, बेशक हम सभी लड़के थे, सभी फिल्म को देखकर बेहद खुश थे क्यूंकि बहुत दिनों बाद कोई ऐसी फिल्म देखी थी जिसने दिल जीत लिया था, इसके पहले इसी तरह राँझणा और रॉकस्टार के साथ हुआ था, इन फिल्मों को देखकर लौटते समय एक अजीब सी भीतरी ख़ुशी हमने महसूस की, किन्तु वे पुरुषप्रधान फिल्में थीं! लेकिन क्वीन की बात कुछ और थी, क्वीन सबसे पहले तो एक स्त्री प्रधान फिल्म थी, एक लड़की की कहानी जो सामजिक बेड़ियों को तोड़कर घर से निकलती है और जीवन को सहीं अर्थ में लन्दन जैसे एक महान विकसित शहर में जाकर समझती है, दूसरा लडकों की आम मानसिकता पर बहुत ही शानदार चित्रण किया गया है!queen480

आम तौर पर हम देखते हैं कि कभी कभी हम भी किसी अनचाहे डर से लड़कियों को एक मानसिक बेड़ियों में बांधकर रखते हैं, तुम लड़की हो ऐसा नहीं करो…तुम लड़की हो यहाँ मत जाओ…ये मत पहनो…वो मत पहनो…वगैरह वगैरह…और भारत में विदेशी मार्केटिंग कंपनियां इस बात का बहुत फायदा भी उठाती हैं, मानते हैं कि ये अत्याधुनिक युग है इसमें आपको वही परसा जाएगा जो आपको समाज में रहते करने नहीं दिया जाता, क्यूंकि जो चीज छिपी रहती है आम तौर पर सामान्य मानवीय मस्तिष्क उसे ही पाना चाहता है! यही बातें लड़कियों या स्त्रीयों की सामाजिक स्वतंत्रता पर भी सहीं बैठती हैं! स्त्रीयों की वास्तविक स्वतंत्रता किसी प्रकार के कपडे पहन लेना, कुछ “तूफानी” कर लेना मात्र नहीं है, उसके भी सपने हो सकते हैं जीवन के बारे में अपने कर्तव्यों की पूर्ती के साथ एक विश्वास हो सकता है!

यह बात गंगा के निर्मल पानी की तरह साफ़ है कि सती का युग वापस नहीं आ सकता, ना सीता, द्रौपदी जैसी परम पवित्रा अब कोई बन सकती है, कारण हवा अशुद्ध बह रही है, सब तरफ प्रदुषण की भरमार है! हम किसी चीज की सकारात्मकता से पहले उसकी नकारात्मकता के चीथड़े खरोंच खरोंचकर उखाड़ देते हैं, इसीलिए सर्व शुद्धता आ जाए या कलियुग पल में सतयुग हो जाए ऐसे सपने देखना निरर्थक है, क्यूंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, और इस नियम को हमे मानना भी होगा, स्त्रीयों पर पहरा लगाना या उनपर हजार बंदिशों की जंजीरें बोझ की तरह डालना किसी भी तरीके से सहीं नहीं हैं, बशर्ते स्त्री अपनी गरिमा के प्रति अपनी अपनी जिम्मेदारी को भी समझे, “क्वीन” की पात्र सहीं मायनों में सामाजिक नकारात्मकताओं का खंडन तो करती है, लेकिन कहीं कहीं पर जो हमे जिसे कहते हैं “ऑड” लगता है उसके लिए वो सहज होता है, इसका कारण है जैसा देश वैसा वेश लेकिन भारतीय दृष्टिकोण से ये एक सुधार की पहल जरुर हो सकती है, लड़कों को अपनी मानसिकता सुधारने की सख्त आवश्यकता है, हर बात को “उस” दृष्टिकोण से सोचने की बजाये एक सकारात्मक रवैय्या लाना बहुत जरुरी है और जहाँ जरुरत है लडकियां भी अपनी जिम्मेदारियों को समझे, अपनी हिफाज़त का ख्याल रखें तो बहुत बेहतर है कि हम एक स्वस्थ्य परंपरा की शुरुआत अपने ही देश में होते देखें…फिर उसी रात की तरह आज़ादी के लिए जिस तरह लड़के गाडी पर झूम रहे थे जहाँ कुछ पल के लिए कुछ जकड़े हुए मानसिक बन्धनों के टूटने की अनुभूति थी, स्त्री पुरुष का भेद मिट गया था  वहां सिर्फ एक बात थी “आज़ादी”…!! सडी हुयी मानसिकता से स्वस्थ्यता की ओर बढ़ने के लिए पहला सा कदम!

___सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

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