आत्मकथा

स्मृति के पंख – 2

पूजनीय पिताजी का नियम था सुबह तीन बजे उठना, नजदीक ही गाँव में नदी थी, वहाँ स्नान करने जाना, वहाँ ही पूजा पाठ, संध्या, गायत्री मंत्र का जाप करना। फिर तकरीबन 5 बजे गुरुद्वारे जाना, जहाँ हिन्दू, सिख सब मिल-जुलकर त्योहार मनाते। गाँव में हमारे घर तो बहुत थोड़े थे, पर पिताजी उत्साह से सब त्योहार मनाते। गुरुग्रंथ साहिब का पाठ तो रोजाना होता, साथ में जय जगदीश की आरती भी, मंगलवार को महावीर का प्रसाद भी। दिवाली, होली, जन्माष्टमी, शिवरात्रि और गुरुओं के गुरुपरब, सब गुरुद्वारे में मनाते। गाँव में एक घर सिखों का था, 10 घर हिन्दुओं के थे। उस समय का मिलजुलकर रहना कितना अच्छा लगता था।

हम इन सब कामों को पूरी लगन से करते और कराते। साथ में जुमारात (वृहस्पतिवार) के दिन मस्जिद में तेल भिजवाते थे बाराए मसजिद में दिये जलाने के लिए। हिकमत का काम भी जानते थे। कोई बीमार हो जाये, पिताजी उसे दवाई व तसल्ली भी दे आते। इसी तरह मुसलमानों में भी बड़ी इज्जत थी उनकी और सब लोग ये कहते थे कि सेवाराम का माल हजम करना मुश्किल है। ऐसी विचारधारा सब गाँव वालों की थी। खासतौर पर नम्बरदार और मुखिया पिताजी की और चाचाजी (लाला गुरुदास मल तलवार) की बहुत इज्जत करते थे। वैसे तो सब हिन्दू लोग एक परिवार की तरह थे, फिर भी हमारे और तलवार खानदान में कुछ ज्यादा प्यार था। उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी और ठेकेदारी का काम भी करते थे। अच्छा घोड़ा टांगा सवारी के लिए मौजूद रहता, साथ में एक नौकर मय बन्दूक के और अपने पास रिवाल्वर हर समय रखते थे। बड़े रौबदार थे और काफी दबदबा रखते थे। गुरुद्वारा उन्होंने ही बनवाया था, जिसकी देखरेख और त्यौहार मनाना पिताजी के सुपुर्द था।

पिताजी की शादी के डेढ़ साल बाद हमारी बहन विद्या का जन्म हुआ। फिर छः माह बाद ही तीर्थयात्रा का कार्यक्रम बना लिया। चार माह तक पूरा परिवार पूरा हिन्दुस्तान घूमा। द्वारकापुरी, रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी, मथुरा, वृन्दावन, मद्रास, बम्बई, कलकत्ता तक गए। यात्रा के आरम्भ में पहले अमृतसर उतरे, हरमिंदर साहब के पावन सरोवर से यात्रा शुरू करनी थी। स्टेशन पर मैं सबके पीछे जा रहा था, शायद मेरा टिकट नहीं था। बाकी टिकटें देखने के बाद उस बाबू ने मुझे गोद में उठा लिया और भ्राताजी से कहा, “इसका टिकट नहीं है?” भ्राताजी ने कहा, “छोटा है।” खैर वह मान गया और गोदी से उतार दिया। तब मुझे मालूम हुआ कि मेरा भी टिकट लगता है और गोरज बहन का भी। गोरज बहन मुझे प्यार से लाल कहती है। वह बहुत चुस्त भी है। अमृतसर में उनका भी टिकट नहीं था, पर वह गेट से निकल गई और फिर हम दोनों बगैर टिकट के ही सफर करते रहे। मौका देखकर गेट से निकल जाते। उस जमाने में भीड़ नहीं होती थी, गेट से थोड़ी सवारी उतरी और गई। फिर बाबू थोड़ी देर में ही इधर-उधर हो जाता और हम निकल जाते।

अमृतसर से रवानगी के बाद स्टेशन पर एक ब्राह्मण परिवार से मेल जोल हो गया। वो तीन सदस्य थे पण्डितजी श्याम सुन्दर जी, उनकी धर्मपत्नी मोटी माता (मोटी थी इसीलिए मैं उन्हें मोटी माता कहता था) और पण्डितजी की बेवा बहन। बहुत अच्छे लोग थे। पूरी यात्रा उन्होंने हमारे साथ की। मोटी माताजी मुझे बहुत प्यार करती थीं, उनकी स्वयं की कोई संतान नहीं थी। मुझे हमेशा गोदी में उठाये रखतीं। एक दफा प्लेटफार्म पर लेटे हुए थे, अभी गाड़ी आने में काफी देर थी। एक सफेदपोश आदमी भी हमारे नजदीक बैठा था। लैम्प होते थे, बिजली तो थी नहीं उस उस वक्त। शायद कुछ पढ़ रहा था। एक काबुली पठान जो सर्दियों के मौसम में काबुल से हिन्दोस्तान आते हैं। साथ में बादाम, हींग, किशमिश, मेवा वगैरह लाकर और इधर बिक्री करते हैं। साथ में मेहनत मजदूरी भी करते हैं। सर्दियों के बाद वापिस काबुल चले जाते हैं। वो काबुली उस सफेदपोश आदमी के नजदीक आ गया।

मैं भी थोड़ा सरककर आगे आ गया। काबुली बोला, “सेठ साहब, एक बात करनी है।” उसने कहा, “बोलो भई क्या है?” काबुली बोला, “हमारे मुल्क में हिन्दू लोग बहुत कम हैं और हमारी कुरान शरीफ में मोहम्मद साहब ने फरमाया है कि जो मेरे दीन में आयेगा उसे जन्नत मिलेगी। हम लोग तो जन्नत जायेंगे ही, पर हिन्दू नहीं जा पायेंगे। लेकिन इधर तो बहुत हिन्दू हैं और ये सब दोजख में जायेंगे? बड़ा मुल्क है। ऐसे मेरे मन में विचार उठे हैं। क्या ठीक है, क्या गलत है, यह पूछना है।” सफेदपोश बाबू ने जवाब दिया, “मैं वकील हूँ। किसी बात पूछने की मेरी फीस 5 रुपये है। लेकिन अब तो हम मुसाफिर हैं, तो सुनो जवाब. तुम्हारे मजहब के पैगम्बर और औलिया वली तुम्हारे से दानिशमन्द थे?” उसने कहा, ”हां, वो तो खुदा रशीदा थे।” “और ऐसे ही आपने सुना होगा। राम और गुरु नानक हिन्दुओं के खुदा रसीदा थे।” उसने कहा, “‘हां सुना तो है।” तो तब वे इस बात का फैसला नहीं कर पाये, तो क्या हम तुम कर सकते हैं? बस चलने दो, जैसे यह संसार चल रहा हैै। कौन दोजख जायेगा, कौन जन्नत, इसका फैसला खुदा ने करना है।”

एक दफा हमारे पास रुपया बिल्कुल खत्म हो गया। तार दी थी, लेकिन रुपया आया नहीं था। जहाँ जाना था वहाँ मत्था टेकने और प्रसाद के लिए भी पैसे नहीं थे। पिताजी पंडित परिवार को ब्राह्मण होने के नाते आगे रखते। पैदल सफर था, मुझे एक चांदी का रुपया मिल गया। थोड़ा आगे बढ़ा तो अठन्नी का सिक्का मिल गया। फिर तो मैं जमीन पर देखकर ही चलने लगा। बहुत सी रेजगारी और चाँदी के रुपये मिल गये। 22 रुपये थे सब। हमने समझा भगवान ने खुद पैसा भेज दिया। मन्दिर पर पहुँचे, स्नान के बाद दर्शन किया, प्रसाद चढ़ाया। फिर रोटी का बन्दोबस्त करके बैठे ही थे कि एकदम मोटी माताजी चीख पड़ीं, “हाय मेरे रुपये।” वास्तव में, उनके गले में गुत्थी थी, जिसमें उनके अपने निजी रुपये और रेजगारी थी। नीचे से गुत्थी फट जाने के कारण सब पैसा गिर गया। पिताजी ने कहा, “मत रोओ, कितने रुपये थे?” कहने लगी, “24-25 थे।” हमने कहा, “22 रुपये तो मिल गए हैं। बाकी 2-4 खो गए।”

एक स्टेशन पर बाबू ने गोरज और मुझे गेट पर रोक लिया, टिकट तो थी नहीं। मैं तो इतना चालाक न था लेकिन गोरज चालाक और होशियार थी। कहने लगी, ”यह मेरा छोटा भाई है। हमारे पास पैसा नहीं है। हम तो ऐसे ही घूम रहे थे।” मैं गोरज के मुंह की ओर देखता रहा। बाबू कैसे मानता? हमारा पहनावा उसके इलाके का था ही नहीं। उसने हमें बिठा लिया कि अभी इनका कोई वली वारिस आयेगा। सामने भैयाजी बैलगाड़ी वाले से सामान ले जाने की बात कर रहे थे। किसी काम की वजह से बाबू थोड़ा उठा और हम दौड़कर बाहर आ गए। दूर से हम देख रहे थे, बाबू आकर इधर-उधर देखता रहा कि बच्चे किधर चले गए।

यात्रा की ये कुछ बातें मुझे याद थीं। चार माह की यात्रा थी, बहुत प्यार बन गया था उन लोगों से। जब वह अमृतसर उतरकर बिछड़ने लगे, तो आंखो के आंसू थमते न थे। मोटी माता ने मुझे चूमा और गले से लिपटाती रही।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

6 thoughts on “स्मृति के पंख – 2

  • Gulshan Kapoor

    पिता जी का एक रूटीन था। सब बच्चों को बिठाकर दोपहर में अखबार से देशभक्ति का कोइ अा र्टीकल सुनाते। उसमें इतना मग्न हो जाते कि सुनाते सुनाते रो देते थे। इसका बच्चों पर बहुत परभाव पढ़ा ।

    • वाह ! गुलशन जी, यह आपने एक नयी और महत्वपूर्ण बात बताई है. बच्चों में देशभक्ति के संस्कार इसी प्रकार डाले जाते हैं.

  • विजय भाई , कहानी रौचक होती जा रही है . आप ने बहुत अच्छा किया जो यह सिम्रिति के पंख प्रस्तुत कर रहे हैं . इन में एक तो यह पता चलता है कि मंदिर गुरदुआरे और मस्जिद का सभी आदर करते थे . जो जनत दोजख का लिखा , इस से पता चलता है कि बच्चा पैदा होते ही हर मुसलमान को विशवास दिला दिया जाता है कि सिर्फ मुसलमान ही जनत में जा सकते हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब !
      आपका कहना सच है. मुसलमानों को प्रारंभ से ही यह सिखाया जाता है कि जन्नत पाना ही उनका पहला और आखिरी उद्देश्य है. इसके लिए जिहाद करना जरुरी है यानि इस्लाम का प्रसार करना यानि गैर-मुसलमानों को मुसलमान बनाना. अगर वे इसके लिए तैयार नहीं होते तो कुरान में उनकी हत्या तक कर देने का आदेश दिया गया है. ऐसी 24-25 आयतें कुरआन में हैं.
      जन्नत का लालच मामूली नहीं है. उसमें जाने वाले हर मुसलमान पुरुष को 72 हूरें, 28 लड़के और हर ब्राण्ड की मनमानी शराब मिलती है. इसके अलावा और क्या चाहिए? इसीकारण आजकल दुनिया में बहुत ‘जिहाद’ हो रहा है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेखक के पिता की दिनचर्या व उनका आचरण पढ़कर अनुभव हुआ कि वह सच्चे महाशय वा देव पुरुष थे। यात्रा के संस्मरण और बच्चे का टिकट न लेना और उसके हाव भाव की अभिव्यक्ति को पढ़कर भी मन में प्रसन्नता हुई। मैं भी बचपन में ऐसी परिस्थितियों से गुजरा हूँ। अब यह लग रहा कि आगे चलकर यह बहुत रोचक होने वाली है। हार्दिक धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कहानी.
    अपनी ईमानदारी और सेवाभावना से कोई भी व्यक्ति पूरे समाज का दिल जीत सकता है.

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