आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 41)

अब मैंने अपनी बुद्धि से थोड़ा काम लिया। सबसे पहले तो मैंने यह तय किया कि होटल में ठहरने का विचार बिल्कुल छोड़ देना है। मैं पूरे 48 घन्टे यहीं बिता देने को तैयार था, क्योंकि भारत में रेलवे प्लेटफार्मों पर दो-तीन रातें काट देने का मुझे अनुभव था, परन्तु यहाँ के प्लेटफार्मों पर यह भी सम्भव नहीं है। अतः एअरपोर्ट में ही रुकना था। मैंने सोचा कि लाबी में कुर्सियों पर बैठने से तो मुझे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए मैं अपना सामान लेकर चौथी मंजिल की लाबी में गया। वहीं से उड़ानें बाहर जाती हैं।

वहाँ और भी कई लोग बैठे थे। मैंने एक कुर्सी के पास अपना सामान रख दिया और सबसे पहले पास के एक बाथरूम में जाकर अपना मूत्र त्याग किया जो मैंने कई घंटे से रोक रखा था। वहीं मैंने हाथ-मुँह धोकर अंजुली से पेट भर कर पानी पिया। फिर वापस लाबी में बैठ कर सोचने लगा।

सबसे पहले तो मैंने यह तय किया कि यदि किसी ने उठाया नहीं तो मैं कम-से-कम एक रात यहीं बैठ कर काट दूंगा। सामान की चोरी का मुझे कोई डर नहीं था। मैंने यह भी सोच लिया कि अगर यह रात आसानी से गुजर गयी, तो दूसरी रात भी यहीं काट दूँगा, नहीं तो सुबह कोई होटल देखूँगा। इस तरह मैं कम-से-कम एक रात का खर्च जरूर बचा सकता था। सबसे ज्यादा चिन्ता मुझे घर की थी। मैं उनसे कह आया था कि मैं 26 को आगरा आ जाऊँगा। अगर मैं तब तक न आया तो वे परेशान होकर पूछताछ करेंगे और जब उन्हें पता चलेगा कि मैं अपनी उड़ान नहीं पकड़ पाया, तो बहुत परेशान हो जायेंगे। परन्तु मैं इस बात से थोड़ा निश्चिन्त था कि पूछताछ से उन्हें यह तो पता चल ही जायेगा कि मेरे लिए 28 तारीख की अगली उड़ान बुक हुई है। यहाँ से भारत फोन करना आसान है, परन्तु अपने दुर्भाग्य के कारण मैं उनसे बात भी नहीं कर सकता था। इसलिए मैं सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़कर सोने की कोशिश करने लगा।

तभी मेरी भूख ने हल्ला बोला। दोपहर को चिप्स के बाद मैंने कुछ खाया नहीं था। मेरे पास थोड़े बिस्कुट थे। मैंने सोचा कि अगर यहाँ भी पेय बेचने की मशीनें लगी हों तो बड़ा काम चले। थोड़ा ढूंढ़ने पर मुझे एक मशीन ऊपर लगी मिल गयी। उसमें से मैं 150 येन डालकर कोका कोला का एक डिब्बा लाया। थोड़े से बिस्कुट और एक बोतल कोकाकोला ही उस दिन का मेरा रात का भोजन बना, जिससे मुझे कुछ तृप्ति हुई। मैंने यह भी तय कर लिया कि कल का दिन केवल मुसम्मी का रस पीकर काट देना है। थकान के कारण थोड़ी ही देर में बैठे-बैठे नींद आने लगी।

मुझे अपनी पत्नी वीनू तथा अपने एक महीने के बेटे की बहुत याद आ रही थी। कहाँ तो मैं सोच रहा था कि उड़ान में बढ़िया खाना खाकर सोऊँगा और रात 12 बजे तक दिल्ली पहुँच जाऊँगा और कहाँ यहाँ तिरस्कृत/उपेक्षित बैठा हूँ। मैंने सोचा शायद ईश्वर मेरी परीक्षा ले रहा हो। सोचते-सोचते मैं सो गया।

मुझे सोये हुए मुश्किल से आधा ही घंटा हुआ होगा कि एक पुलिस वाले ने आकर मुझे जगा दिया। मैंने उससे कहा कि मैं अपनी फ्लाइट का इन्तजार कर रहा हूँ, तो वह बोला कि नीचे पहली मंजिल पर जाकर बैठो। मैंने कहा- ‘ठीक है।’ परन्तु मैं इतनी आसानी से वह आरामदायक जगह छोड़ने को तैयार नहीं था। इसलिए मैं सामान वहीं छोड़कर पहले नीचे देखने गया कि वास्तव में वहाँ कोई जगह है या नहीं। वहाँ मैंने देखा कि बड़ी अच्छी जगह कुर्सियाँ लगी हैं। उन पर और भी कुछ मेरे जैसे ही लोग बैठे थे, जिनकी उड़ान अगले दिन थी। पास में ही पेय की मशीन लगी थी जिसमें केवल 100 येन में एक डिब्बा मिल जाता था, जबकि ऊपर वाली मशीन में 150 येन में मिलता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि वहाँ चौथी मंजिल की तुलना में ठंड भी कम थी, क्योंकि मेरे पास ओढ़ने के लिए कोई चादर भी नहीं थी। इसलिए मैं ऊपर जाकर अपना सामान ले आया और एक कुर्सी के बगल में सामान रखकर दो-तीन कुर्सियों पर लम्बा होकर सो गया।

करीब रात को 12 बजे एक पुलिस वाले ने मुझे जगाया। अब मैं मन-ही-मन घबराया कि कहीं यह बाहर न भगा दे। परन्तु उसने केवल मेरा तथा दूसरे सभी लोगों का भी पासपोर्ट देखा और नाम नोट कर के चला गया। वास्तव में वह केवल यह देखने आया था कि यहाँ कोई गलत आदमी तो नहीं बैठा है। उसकी यह बात मेरे हित में गयी, क्योंकि अब मुझे चोरी का बिल्कुल डर नहीं था और न किसी के द्वारा टोके जाने की चिन्ता थी। इसलिए मैं निश्चिन्त होकर सो गया और प्रातः 5 बजे तक सोता रहा।

27.10.1990 (शनिवार)

करीब 5 बजे सुबह मेरी नींद खुली। आस-पास और भी लोग बैठे थे तथा कुछ सो रहे थे। मेरा सामान सही सलामत था। वैसे मैंने अपना कपड़े का बैग जिसमें मेरा पासपोर्ट, टिकट, अन्य कागजात और कुछ मालमत्ता था, तकिये की तरह सिर के नीचे लगा रखा था। बाकी सामान की मुझे उतनी चिन्ता नहीं थी।

सबसे पहले बाथरूम में जाकर मैंने कुल्ला-दातुन किया, हाथ-मुँह धोये और शौच से भी निवृत्त हुआ। थोड़ी टट्टी आने पर मुझे प्रसन्नता हुई, क्योंकि पिछले दिन मैंने कुछ खास नहीं खाया था। नहाने का प्रश्न ही नहीं था और कपड़े मैंने इसलिए नहीं बदले कि अभी मुझे एक रात और सोना था तथा मेरे पास केवल एक जोड़ी कपड़े धुले हुए रह गये थे। इसलिए मैंने तय किया कि आज केवल पूरी आस्तीन की जर्सी पहनूँगा तथा कल शर्ट-पैन्ट बदल लूँगा।

एक रात आराम से गुजर जाने पर मुझे संतोष हुआ। मैंने तय किया कि आज दिन भर यहीं बैठे रहना है, क्योंकि इससे सुरक्षित और आरामदायक जगह यहाँ और कोई नहीं है। आस-पास मैंने देख लिया कि वहाँ शाकाहारी खाना कहीं उपलब्ध नहीं है। इसलिए दिन भर मुसम्मी के रस पर रहा। 100 येन के एक सिक्के में एक बोतल (करीब 200 मिलीलीटर) रस आता है। मैंने तीन-तीन घंटे पर वही पिया। सबेरे 9 बजे बचे हुए कुछ बिस्कुट खाये तथा एक बोतल रस पिया। फिर 12 बजे एक बोतल रस लिया। फिर 3 बजे, फिर 6 बजे। भूख बिल्कुल भी मालूम नहीं पड़ी। बीच-बीच में पानी भी पीता रहा। मन कुछ बेचैन रहा, पर धैर्य रखने की कोशिश की।

आज के समय का उपयोग जापान यात्रा की कहानी लिखने में किया। बीच में थोड़ा इधर-उधर से लाये गये अखबार पढ़ता रहा। करीब 12-13 पेज डायरी के लिख लिये। ये शब्द लिखने तक रात्रि के 7 बज चुके हैं यानी मुझे इन्तजार करते करते पूरे 24 घन्टे गुजर गये। अभी 20 घन्टे और गुजारने हैं। ईश्वर की दया से ये भी सही सलामत गुजर जायें और उड़ान मिल जाये, तब आगे लिखूँगा।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 41)

  • Man Mohan Kumar Arya

    जाहे विधि राखे राम ताहि विधि रहिये। यह पंक्ति आप की उस समय की परिस्थितियों पर लागू होती लग रही है। किया हुआ तप बेकार कभी नहीं जाता, उसका जीवन में लाभ अवश्य मिलता है। यह भी एक एक सच्ची कहावत है कि जहाँ कोई सहायक न हो वहां ईश्वर रक्षा करता है। मनुष्य को कभी निराश व हताश नहीं होना चाहिए। चिंतन करने से कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है। ईश्वर सुबुद्धि वा समस्या का हल सुझा देता है जिससे समस्या से पार हुआ जा सकता है। यह बातें कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के लिए कही गई हैं जिनसे आपको गुजरना पड़ा है। आपने २८ घंटे गुजार लिए अब केवल २० घंटे की बात है, ईश्वर की कृपा से वह भी बीते हैं जिसका विवरण जानने की इच्छा है कि उसमे आपने क्या क्या किया। इस घटना से आपको कई सीखें भी मिली होंगी। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! हर संकट से आदमी कुछ न कुछ सीखता ही है. मैंने भी सीखा. ईश्वर की सत्ता में मेरा विश्वास दृढ ही हुआ. उसी ने मेरी सहायता की. आगे की कड़ियाँ भी रोचक हैं.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, आप को इतनी तकलीफ तो उठानी पड़ी लेकिन हम हिन्दुस्तानी ऐसी बातें सहने के आदि हैं . इंडिया में रेलवे स्टेशनों पर ऐसे सोना कोई नई बात नहीं है . अब यह नई बात भू कांप की हुई है किया आप और आप का परिवार सही सलामत हैं ? लखनाऊ में कोई नुक्सान तो नहीं हुआ ? सुबह से टीवी देख रहे हैं , काठमंडू का तो बुरा हाल है लेकिन भारत में भी नुक्सान काफी हुआ है , ऐसा देख रहे हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम भाई साहब. लखनऊ में मामूली नुक्सान हुआ है. पर हम सही सलामत हैं. काफी देर बाहर ही खड़े रहना पड़ा है. रात २ बजे सोया था.

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