आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 6)

कानपुर में शाखा का हाल

जब मैं कानपुर गया तो मेरे आने का समाचार संघ वालों को पहले ही मिल गया था। डा. अशोक वाष्र्णेय वहाँ विभाग प्रचारक थे। उनसे मेरा बहुत पुराना परिचय था। वाराणसी के प्रचारक चन्द्र मोहन जी ने उनको फोन पर ही बता दिया था कि मैं कानपुर आ रहा हूँ और अशोक नगर के फलां मकान में रहूँगा। इसके परिणामस्वरूप दो-तीन दिन बाद ही अशोकनगर शाखा के दो-तीन स्वयंसेवक मुझसे मिलने आ गये। डा. अशोक जी भी उनके साथ आये थे। वे स्वयंसेवक थे- नगर संघचालक श्री ब्रज लाल जी गुप्त, श्री ओम प्रकाश जी शर्मा और श्री गुरुनारायण जी बहल। ये तीनों 60 वर्ष से अधिक उम्र के थे, परन्तु युवकोचित उत्साह से संघकार्य करते थे। इनके बारे में विस्तार से आगे लिखूँगा। यहाँ कानपुर में संघकार्य की रूपरेखा बता देना उचित होगा।

उस समय कानपुर महानगर तीन जिलों में बँटा हुआ था- कानपुर पश्चिम, कानपुर दक्षिण और कानपुर उत्तर-पूर्व। बाद में कानपुर उत्तर-पूर्व को दो जिलों में बाँट दिया गया- कानपुर उत्तर और कानपुर पूर्व। हमारा क्षेत्र अशोकनगर पहले कानपुर उत्तर-पूर्व जिले में आता था, बाद में कानपुर पूर्व में आने लगा। हमारे नगर का नाम था गाँधीनगर, जिसमें अशोकनगर, हर्ष नगर, मोतीझील, नेहरू नगर, जवाहर नगर, सीसामऊ बाजार, गाँधी नगर और प्रेम नगर का सारा भाग शामिल था। हमारी शाखा का नाम था परशुराम, परन्तु बोलचाल में उसे अशोक नगर शाखा कहते थे। हमारी शाखा कुमारी उद्यान विद्यालय, जिसे बोलचाल में फातिमा स्कूल कहते हैं, के सामने के तिकोने पार्क में लगती थी। पूरे अशोक नगर और हर्ष नगर के भी स्वयंसेवक इसी शाखा में आते थे।

उस समय हमारे नगर संघचालक थे श्री ब्रज लाल जी गुप्त, जो रुई का व्यापार करते थे। वे 80-फीट रोड पर अशोक नगर की साइड में रहते थे और हमारी ही शाखा में नियमित आते थे। हमारे नगर कार्यवाह थे श्री बंशीलाल जी अरोड़ा, जो एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। अशोक नगर शाखा के स्वयंसेवक बहुत ही प्रेरक थे। यहाँ प्रमुख स्वयंसेवकों का परिचय देना उचित होगा।

अशोक नगर के सबसे पुराने स्वयंसेवक थे श्री बाबू लाल जी मिश्र। वे उस समय 85 वर्ष के रहे होंगे। पहले वे नगर संघ चालक थे, परन्तु स्वास्थ्य के कारणों से स्वयं ही कार्यमुक्त हो गये थे। अत्यन्त वृद्ध और अस्वस्थ होने पर भी वे अधिकांश दिनों में शाखा आते थे। वे अपने आप में एक इतिहास थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे और मेरी जिज्ञासाओं को शान्त किया करते थे। अपने बारे में उन्होंने बताया था कि सन् 1940-42 के आस-पास जब पूरे कानपुर में मात्र तीन शाखाएँ लगती थीं, तब उनमें से एक शाखा वे परेड पर आजकल के रामलीला मैदान में लगाया करते थे। वे हिन्दुस्थान समाचार के समाचार सम्पादक के पद पर बहुत दिनों तक कार्य करते रहे थे अर्थात् पत्रकार थे और लगभग 25 वर्ष पूर्व रिटायर हो गये थे। मैंने अपनी आँखों से देखा था कि कानपुर के बड़े-बड़े प्रमुख स्वयंसेवक और कार्यकर्ता उनके पैर छूते थे। वे मुझे बहुत मानते थे और शाखा पर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से मेरी प्रशंसा किया करते थे। उनकी धर्मपत्नी स्वयंसेवकों में माताजी के नाम से प्रख्यात थीं। मा. बाबूलाल जी और माताजी के चरण छूकर आशीर्वाद लेने में मुझे बहुत आनन्द आता था। मैं प्रायः उनके निवास पर जाता था और बहुत बातें करता था। मा. बाबूलाल जी मिश्र का देहान्त कानपुर में मेरे सामने ही हो गया था। इसके बारे में आगे लिखूँगा।

हमारे तत्कालीन नगर संघचालक श्री ब्रजलाल जी गुप्त, मूलतः हरियाणा के निवासी थे, लेकिन कानपुर में लम्बे समय से रहकर रुई का व्यापार करते थे। वे लाठी चालन के विशेषज्ञ थे। मैंने भी उनसे शाखा पर लाठी चलाना सीखा था। उनको यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ था कि अन्य स्वयंसेवकों की अपेक्षा मैं बहुत कम समय में ही अच्छी तरह लाठी चलाना सीख गया था। बाद में अभ्यास छूट जाने से मैं सब भूल गया। मा. ब्रजलाल जी का मेरे ऊपर अपार स्नेह था।

हमारे नगर कार्यवाह श्री बंशीलाल जी अरोड़ा भी अधिकतर हमारी अशोकनगर शाखा में ही आते थे। वे लाहौर के रहने वाले थे और देश विभाजन के कारण वहाँ से विस्थापित होकर कानपुर आये थे। यहाँ अपने परिश्रम से उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस लगायी थी और मकान भी बनवा लिया था। दुर्भाग्य से उनकी श्रीमती जी पूरी तरह अंधी हो गयी थीं। वे दोनों भी मुझे बहुत स्नेह करते थे। तमाम पारिवारिक कठिनाइयों के बाद भी मा. बंशीलाल जी संघकार्य में बहुत समय देते थे। एक बार मेरी श्रीमती जी ने मुझसे उनकी चर्चा करते समय उनको ‘बंशीलाल’ कहकर पुकारा। यह सुनकर मुझे बहुत पीड़ा हुई। मैंने श्रीमती जी से कहा- ‘वे इतने बड़े कार्यकर्ता हैं। उनका नाम जरा इज्जत से लिया करो।’ यह कहते-कहते मेरी आँखों में आँसू आ गये। तब श्रीमतीजी ने भी अपनी गलती महसूस की।

एक अन्य स्वयंसेवक थे श्री ओम प्रकाश जी शर्मा। आप उस समय मात्र 73 वर्ष के युवक थे। बंशीलाल जी की तरह वे भी लाहौर के निवासी थे और विभाजन के बाद अमृतसर में आये थे। वहाँ से वे कानपुर चले आये। उनके तीन पुत्र हैं, जो सभी अपनी-अपनी आजीविका चला रहे हैं। दुर्भाग्य से उनकी श्रीमतीजी की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी और हमारे कानपुर छोड़ने के कुछ समय बाद ही उनके देहान्त का समाचार मिला था। ओम प्रकाश जी के चेहरे पर भले ही वृद्धावस्था की झुर्रियाँ हैं, लेकिन शरीर में युवकों जैसा उत्साह और जिन्दादिली है। उनको संघकार्य में इतनी निष्ठा है कि स्वस्थ होने पर बिना नागा शाखा आते हैं और उत्साहपूर्वक सारे कार्य करते हैं। जनसम्पर्क करने का उनका तरीका भी अपने आप में एक उदाहरण है। वे अपरिचित व्यक्तियों से भी इतनी आत्मीयता से बात करते हैं जैसे उनसे बरसों की जान-पहचान हो। उन्हें इस बात का पूरा ध्यान है कि उनका शरीर अधिक दिनों तक साथ नहीं देगा। इसलिए कहा करते हैं कि यह शरीर छूटने के बाद फिर जन्म लेकर संघकार्य करूँगा। ऐसे स्वयंसेवक के समक्ष कौन नतमस्तक नहीं होगा?

श्री ओम प्रकाश जी शर्मा ने अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। पुलिस की लाठी उनकी दायीं बाँह पर इतनी इतनी जोर की पड़ी थी कि बाँह लगभग बेकार होकर झूल गयी थी। जब मैं कानपुर आया था तब भी उनकी बाँह में असहनीय दर्द होता था। उनका वह हाथ कभी भी कंधे से ऊपर नहीं उठता था। तभी बम्बई के जाने किस डाक्टर ने उनको बताया कि तालियाँ बजाया करो। इससे हाथ ठीक हो जायेगा। इस पर वे दिनभर में कभी भी मौका मिलते ही तालियाँ बजाते रहते थे, अधिक जोर से नहीं, बस इतनी जोर से कि उसकी आवाज भी किसी को सुनाई न पड़े। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब हमने देखा कि मात्र तालियाँ बजाने से उनका हाथ केवल 6 माह में 90 प्रतिशत से अधिक ठीक हो गया और अगले 6 माह में पूरी तरह ठीक हो गया। अब उनका हाथ पूरा उठ जाता है और सारे कार्य कर लेते हैं। दर्द बिल्कुल नहीं है। तालियाँ बजाने का यह उपचार मैंने पंचकूला में भी एक सज्जन पर आजमाया और ईश्वर की कृपा से उनको भी पूरी सफलता मिली। तब से मैं हाथों में दर्द या कमजोरी की शिकायत करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इन दोनों का उदाहरण देते हुए ताली बजाने की सलाह दिया करता हूँ। जो इस सलाह को मानते हैं वे लाभ उठा लेते हैं।

अशोक नगर में उनके ही समवयस्क एक स्वयंसेवक थे श्री गुरु नारायण जी बहल। वे किसी प्राइवेट कम्पनी या कारखाने में एकाउंटेंट थे और अवकाश प्राप्त कर चुके थे। उसके बाद उनका अधिकांश समय संघकार्य में ही जाता था। उनकी एक आँख में रोशनी बिल्कुल नहीं थी, इसलिए काला चश्मा लगाये रहते थे। उनके चार या पाँच पुत्रियाँ और केवल एक पुत्र हैं। सभी का विवाह हो चुका है। सबसे छोटी पुत्री निधि (गुड़िया) का विवाह हमारे सामने ही कानपुर में हुआ था। उसकी ससुराल मेरठ में है। गुरु नारायण जी के पुत्र श्री विजय कुमार बहल दिल्ली सरकार में कलाकार हैं। अब वे नौयडा में रहते हैं। गुरु नारायण जी भी वहीं चले गये हैं। एक बार नौयडा में मैं उनके दर्शन कर चुका हूँ। पहले उनसे नियमित पत्र व्यवहार होता था, परन्तु अब काफी दिनों से कोई पत्र नहीं आया है। इन्हीं के समवयस्क एक अन्य स्वयंसेवक भी अशोकनगर शाखा में आते थे। वे हैं श्री दामोदर प्रसाद तिवारी। वे पहले किसी न्यायालय में टाइपिस्ट थे और अवकाश प्राप्त कर चुके थे। उसके बाद वे अशोकनगर के लोकमान्य तिलक पुस्तकालय के अवैतनिक पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में लगभग 30 वर्ष से अपनी सेवाएँ दे रहे थे और अभी भी दे रहे हैं।

इस विवरण से आप यह न समझिये कि अशोकनगर में केवल वृद्ध स्वयंसेवक ही थे। वहाँ युवक स्वयंसेवकों की भी एक बड़ी संख्या है, हालांकि वे शाखा आने में उतने नियमित नहीं हैं। मैं उनमें से कुछ का नामोल्लेख मात्र करना चाहता हूँ- सर्वश्री शारदा प्रसाद जी, दिनेश जी गुप्त (मा. ब्रज लाल जी के सुपुत्र), हरीश जी सक्सेना (जिनका बाद में किसी बीमारी से देहान्त हो गया), कीर्ति जी (राजू जी), सुभाष चन्द जी बाजपेई, हरमेश जी अग्रवाल, अशोक जी शर्मा आदि। इनमें से शारदा प्रसाद जी इसलिए स्मरणीय हैं कि वे तृतीय वर्ष प्रशिक्षित थे। वे आर.टी.ओ. पर फार्म तथा स्टैम्प पेपर बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे। बाद में वे पंडिताई भी करने लगे थे।

अशोक नगर के अलावा गाँधी नगर की अन्य शाखाओं के स्वयंसेवकों से भी हमारा सम्पर्क रहता था। उनमें से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं। वहाँ सर्वश्री चेलाराम जी खत्री, लाल बहादुर सिंह जी, अमर नाथजी, सन्तोष जी (जिन्होंने बाद में पारिवारिक कारणों से फिनायल पीकर आत्मघात कर लिया था), साहब सिंह जी आदि अनेक सम्माननीय और प्रेरणादायक स्वयंसेवक थे। उनमें से बहुतों के नाम मैं भूल गया हूँ। मा. चेला राम जी उन दिनों पांचजन्य साप्ताहिक वितरित करते थे। केवल साइकिल पर पूरे नगर क्षेत्र में घर-घर जाकर पांचजन्य पहुँचाया करते थे और साल भर में कमीशन के नाम पर जो कुछ बचता था, उसे गुरुदक्षिणा में दे दिया करते थे। वे चाय तक नहीं पीते थे। बाद में जब स्वास्थ्य के कारण उनके लिए साइकिल चलाना कठिन से कठिनतर होता गया, तो उन्होंने इस कार्य का भार एक अन्य स्वयंसेवक को सौंप दिया था।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरे ऊपर इन सभी स्वयंसेवकों का बहुत स्नेह था और मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। प्रारम्भ में मुझे अपनी शाखा के सह मुख्य शिक्षक का दायित्व दिया गया था। बाद में मुख्य शिक्षक भी बना। फिर मैंने स्वयं ही अपने को सभी दायित्वों से मुक्त कर लिया, हालांकि शाखा और सभी कार्यक्रमों में मैं नियमित जाता था।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 6)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज की किश्त बहुत अच्छी लगी . देशसे बाहिर रहने के कारण बहुत बातें मुझे पता नहीं हैं . आर एस एस का नाम सुना तो बहुत है ,कुछ लोग नुक्ताचीनी भी करते हैं लेकिन मुझे आर एस एस के बारे में कोई गियान नहीं है . किया ऐसा हो सकता है कि कभी आप को वक्त मिले तो इस पर कोई लेख लिखें ?. दुसरे ताली वजाने की बात समझ में आती है कि ऐसा करने से नर्व्ज़ को शक्ति मिलती है , मैं भी शुरू करूँगा .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! संघ के बारे में लेख लिखने के लिए आपने शायद एक बार और कहा था. मैं भूल गया. लेख लिखा रखा है. उसे कल खोजकर लगाऊंगा.
      अगर आप ताली बजा सकते हैं तो अवश्य बजाइए. न अधिक जोर से, न धीरे. एक मिनट में 100 बार के हिसाब से बजाइए. अगर प्रतिदिन 20 मिनट भी बजायेंगे तो 2 हज़ार बार हो जायेगा. इसका बहुत लाभ मिलेगा. हाथों में एक्यूप्रेशर के बिंदु होते हैं. वे भी इससे सक्रिय हो जाते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की पूरी क़िस्त ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक व उत्साहवर्धक है। आरएसएस देश का एक प्रमुख सुसंगठित सामाजिक संगठन है जिसने हिन्दू जाति व देश की रक्षा के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये हैं। युवावस्था में मेरे भी अनेक मित्र आरएसएस के सक्रिय सदश्य रहें हैं। एक वर्तमान में राज्य सभा के सदस्य श्री तरुण विजय हैं। इनसे विगत कई वर्षों से कोई संपर्क नहीं हुआ है। यह पांचजन्य के संपादक भी रहे हैं। एमरजेन्सी के दिनों में हम दोनों एक दूसरे के घर आते जाते थे। एक अन्य मित्र भी स्थानीय स्तर पर बीजेपी के शीर्ष पद पर हैं। उनसे यदा कदा भेंट हो जाती है। ताली बजाकर हाथ की पीड़ा वा रोग ठीक हो जाता है यह पहली बार जाना। मैं भी इसका सावधानी के लिए प्रयोग करूँगा और औरो को भी सलाह दूंगा। मेरा भी यह व्यव्हार रहा है कि यदि कभी मेरी पत्नी ने मेरे किसी मित्र या विद्वान के आगे श्री या नाम के पीछे जी का प्रयोग नहीं किया तो उससे मुझे हार्दिक वेदना होती थी और मैं उन्हें टोक भी देता रहा हूँ। आज की इस सुन्दर क़िस्त के लिए हार्दिक धन्यवाद सवीकार करें।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर ! ताली बजने का प्रयोग आप अवश्य करें और कराएँ.

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