कविता

सच्चा धर्म

(१८.१.२०१४ को पेशावर/पाकिस्तान में हुए आतंकी हमले के सन्दर्भ में)

वहाँ तो नही था कोई,
मंदिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा,
नही कोई पण्डित,मौलवी,
पादरी या गुरुग्रंथी।
वह तो पढ रहा था,
मोहब्बत का अलिफ-बे,
प्यार का क.ख.ग,
या लव का ए.बी,सी,डी।
उसके हाथों में जो कलम थी,
जिसमें भरी थी उसके वालदेन ,
के अरमानों की स्याही,
उसके निब में थी,
हौसलों की उडान,
अपनी तकदीर ,
वह लिख रहा था,
इंसानियत,
शायद इसी को धर्म कहते हैं,
उसका लाल रंग बह रहा था,
क्योंकि उसने पढ लिया था,
सच्चा धर्म।

One thought on “सच्चा धर्म

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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