कविता

सूरज

प्रगाढ़ प्रेम के परिचायक
हो भानु तुम
सदियों से धरा का आंचल
स्नेह की हरियाली से
भरते आये हो
कण कण पुलकित तुमसे
हर जीव के तुम सरमाये हो
रश्मियों का पहरा भोर में
हर कली मे तुम मुस्कायें हो
निशा मे शशी जब जब आकर
धरणी से तुम्हारा बिछोह करवाता हैं
फिर मिलन की आस लिए
तुम नयी सुबह संग लाए हो
युगों युगों से मिलन तुम्हारा
धरा के तुम हमसाये हो
जब जब तिमिर प्रहार करे
तुम दीप प्रज्वलित से आए हो
हो प्रेम के पारितोषिक तुम
हर युग मे जगमगाए हो
हे सूर्य ! तुम  हो प्राण सभी के
हर जुग मे झिलमिलाये हो

मधुर परिहार 

One thought on “सूरज

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता !

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