कहानी

कहानी : झोला छाप

नंदू किसी तरह गाँव की पाठशाला में आठवीं पास करने के बाद शहर आ गया था , शहर में उसने तक़रीबन 5-6 साल तक एक डॉक्टर के पास कंपाउंडर का काम किया । बुखार , खांसी , दर्द आदि छोटी मोटी बीमारी की दवाई देना और मरहम पट्टी करना सीख गया तो उसने सोचा की अपने गाँव चला जाये और वंही क्लीनिक खोला जाए ।

गाँव में आने के बाद उसने अपने घर में ही अलमारी बना के दवाइयाँ देनी शुरू कर दी ,जब मरीज नहीं होते या काम ठीक नहीं चलता तो वह दवाइयों का थैला उठाता और साईकिल पर गाँव गाँव घूमता। अधिकतर गरीब लोग उससे दवाइयाँ लेते , क्यों की बड़े डॉक्टर की फीस भरनी और महंगी दवाइयां उनके लिए संभव नहीं होता था ऐसे में एक मात्र नंदू ही उनका सहारा होता था ।

सुरेश जो की कभी नंदू के साथ ही पढ़ा हुआ था और दूसरे गाँव में रहता था , पर पढ़ने में होशियार होने के कारण आगे पढता रहा और अब वह बी. ए. पास था । वह नंदू को जरा सी भी कद्र नहीं करता था, सुरेश सोचता की नंदू आठवीं पास और वह कँहा स्नातक। हमेशा नन्दू को और उसके झोला छाप डॉक्टर होने का मजाक बनाता , कभी कभी तो मुंह पर ही बेइज्जती कर देता था पर नंदू सुरेश की बाते हंस के टाल देता ।

सुरेश का विवाह हो चुका था और एक दो साल का बेटा भी था। सुरेश अपने परिवार के साथ खेती में हाथ बंटाता था जिससे उसके परिवार का भरण पोषण होता था । उसने सोचा था की यदि वह नौकरी करेगा तो सरकारी ही करेगा इसलिए वह शहर नहीं गया और गाँव में ही रह के प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करता।

सर्दियो के दिन थे , सुरेश का बेटा दिन भर अच्छा भला खेल रहा था पर जैसे ही रात हुई उसे तेज बुखार चढ़ना शुरू हो गया। सुरेश ने घर में पड़ी हुई दवाई पिलाई पर उससे भी फर्क नहीं पड़ा , जैसे जैसे रात गहरा रही थी बच्चे का बुखार तेज होता जा रहा था। रात को 11 बजे के करीब बच्चे को इतना तेज बुखार चढ़ा की उसकी आवाज बंद हो गई और आँखे पलट गईं ,पसलियां तेज चलने लगीं। सुरेश ने हर उपाय कर के देख लिया पर कोई फर्क नहीं पड़ा, पूरा परिवार घबरा गया और फ़ौरन कस्बे के नामी डॉक्टर के पास जाने की तैयारी की गई।

उन दिनों गाँव में वाहन की सुविधा नहीं होती थी और न ही किसी के पास निजी वाहन ही होते थे, यंहा तक कि साईकिल भी बहुत कम ही घरों में मिलती थी। क़स्बा लगभग पांच किलो मीटर दूर था, सुरेश ने रात में ही बच्चे को शहर के डॉक्टर को दिखाने की निस्चय किया और बच्चे को कंबाल में लपेट के कस्बे की तरफ पैदल ही चल दिया। साथ में उसके पिता और उसकी पत्नी भी थे, रास्ते में कड़ाके की ठण्ड, घने कोहरे और झाड़ियो तथा खड़ी फसलों से टपकती ओस की परवाह न करते हुए तीनो तेजी से बढ़े जा रहे थे।

सुरेश के पिता जी आगे लाठी और लालटेन लेके चल रहे थे , बीच में सुरेश की पत्नी और उसके पीछे सुरेश। तक़रीबन एक घंटे बाद वे कस्बे में स्थित डॉक्टर के पास पहुँचे, देखा तो क्लीनिक में ताला लगा हुआ था बोर्ड पर लिखा हुआ था ‘ डॉक्टर महेश MBBS ‘। डॉक्टर के घर में काफी देर आवाज लगाने के बाद डॉक्टर की पत्नी उठ के आई और गुस्से में इतनी रात में आने का कारण पूछा। सुरेश के बताने पर डॉक्टर की पत्नी ने कहा की- “डॉक्टर साहब घर पर नहीं हैं, सुबह आना।” और इतना कह के थोडा सा खुला दरवाजा फिर से झटके में बंद कर के अंदर चली गई।

सुरेश को बहुत निराशा हुई, वह जानता था कि डॉक्टर घर में ही सो रहा है पर आना नहीं चाहता है। तीनो. मन मार के वहाँ  से चल दिए, कस्बे में तक़रीबन 4-5 डॉक्टर थे सुरेश सब के पास गया पर कहीं ताला लगा हुआ मिलता तो कोई सुबह आने की बात कह के उसे भगा देता।

यह सब देख के सुरेश की पत्नी का रो रो के बुरा हाल रहा था, जब हर तरफ से निराश हो गए तो सुरेश के पिता ने नंदू के पास चलने की सलाह दी । सुरेश का मन तो नहीं माना पर और कोई चारा न देख वह चुप चाप अपने पिता के पीछे हो लिया ।

तीनो तेजी से चलते हुए और ठण्ड से कांपते हुए नंदू के गाँव चल दिए, नंदू के गाँव के घर पहुँच के उन्होंने नंदू का दरवाजा खटखटाया, रात के ढाई बज चुके थे । सुरेश सोच रहा था की कंही नंदू भी उसके बच्चे का इलाज करने से मना न कर दे क्यों की सुरेश हमेशा नंदू के झोला छाप डॉक्टर होने का मजाक बनाता था और कम पढ़े होने की बेज्जती कर देता था।

तभी दरवाजा खुळा, यह नंदू था । नंदू ने जब लालटेन की रौशनी में सुरेश को देखा और उसके साथ उसकी पत्नी को जो बच्चा लिए हुए थी तो वह सब माजरा समझ गया।
उसने तुरंत सुरेश और उसकी पत्नी , पिता को अंदर आने को कहा ।
” क्या बात है सुरेश? इतनी रात?” नंदू ने पूछा
” क्या बताऊँ नंदू भाई , बच्चा बहुत बीमार है ” सुरेश इतना कह चुप हो गया ।
“ओह! दिखा ” इतना कह नंदू ने बच्चे का चैकअप किया “मामला काफी बिगड़ गया है , पर कोई बात नहीं बच्चा जल्द ही ठीक हो जायेगा।” नंदू ने स्टेथोस्कोप से बच्चे को जांचते हुए कहा।

उसके बाद नंदू ने अपनी पत्नी को आवाज दी और उससे तीन काली चाय बनाने को कहा साथ ही कुछ उपले और सूखी लकड़ियाँ लाने को भी ।

थोड़ी देर में उसकी नंदू की पत्नी काली चाय बना के ले आई और कुछ उपले और लकड़ियाँ भी। नन्दू ने सुरेश , उसकी पत्नी और उसके पिता जी को चाय पीने को दिया तथा एक लोहे के तसले में उपले और लकडियो का अलाव जला के सुरेश और बाकी लोगो को उसके पास बैठने को कहा । खुद बच्चे को इंजेक्शन आदि दवाइयाँ देनी शुरू कर दी , पूरी रात नंदू एक पल के लिए नहीं सोया, कभी बच्चे के सर पर पट्टी रखता तो कभी कोई दवाई पिलाता। इस बीच सुरेश बैचेनी से बैठा सब कुछ देखता रहा, तकरीबन सुबह 5 बजे के करीब बच्चे ने आँखें खोल दीं और रोना शुरू कर दिया। नंदू ने सुरेश को बताया की अब बच्चा खतरे से बाहर है। सुरेश ने नन्दू को गले से लगा लिया , उसके आँखों से आंसू निकल रहे थे … आज झोला छाप डॉक्टर किसी डिग्री धारी डॉक्टर से अधिक काबिल साबित हुआ था, मानवता की नजर में ।

– केशव ( संजय)

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?