सामाजिक

बंधन सिर्फ नारी के

जीवन भर संजो के सपनो को रखना ये एक आदत सी बन जाती है नारी की | उसकी कल्पना बस खावबो में ही सिमट कर रह जाते है | उसकी सोच बहुत कुछ बदलने की होती है पर हासिल कुछ नहीं |

दिल ही दिल में थोपा गया मज़बूरी का हर लम्हा काटती है जैसे ये उसके जीवन का हिस्सा हो | हवा आये तो दुपटटा उड़ने का डर , रात हो तो अँधेरे का डर , मायके में हो तो पिता भाई का डर , ना जाने कितने डर के साथ वो छोटी से बड़ी और बच्ची से बूढी हो जाती है | कभी उसका मन भी आज़ादी चाहता है सोचा कभी ??

” कभी तन्हाई में रहकर भी भीड़ का एहसास , और कभी भीड़ में भी अकेले का एहसास ||

कब जानेगा कब सोचेगा ये जमाना

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com