कविता

नवजात-बाली

बैरन बन छाती क्यो, तू रे हवा मतवाली?
हिलौर न मुझको वेग से, मैं अभी “नवजात-बाली”
हृदय हूँ विश्वंभर का, आत्मजा मान जिसने पाली,
प्रकृति मेरी माता, भाई-बहन हर पत्ता-डाली।
उन्मत्त ना होना देख मुझे, वरना दूँगी तुझको गाली।
रूई के फाहों सी चलना, मत बनना अभी घटा-काली।
बन जाऊ तरूणी, भर दूँ सारे पेट खाली।
तू  भी तो देख रही है बिन रोटी, हिंसा, बदहाली।
करती जा मेरी रक्षा, क्योंकि मैं अभी “नवजात-बाली”।।

     — सोना श्री

One thought on “नवजात-बाली

  • सुधीर मलिक

    सुन्दर सृजन

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