गीतिका/ग़ज़ल

मुझको मिले हैं ज़ख्म

मुझको मिले हैं ज़ख्म जो बेहिस जहान से
फ़ुरसत में आज गिन रहा हूँ इत्मिनान से

आँगन तेरी आँखों का, न हो जाये कहीं तर
डरता हूँ इसलिए मैं वफ़ा के बयान से

साहिल पे कुछ भी न था तेरी याद के सिवा
दरिया भी थम चुका था अश्क़ का उफ़ान से

नज़रों से मेरी नज़रें मिलाता है हर घड़ी
इकरार-ए-इश्क़ पर नहीं करता ज़ुबान से

कटती है ज़िन्दगी नदीश की कुछ इस तरह
हर लम्हाँ गुज़रता है नये इम्तिहान से

©® लोकेश नदीश

One thought on “मुझको मिले हैं ज़ख्म

  • जयनित कुमार मेहता

    वाह! क्या खूब आदरणीय नदीश भाई..

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