कविता

एक बूट की अभिलाषा

चाह नहीं मैं फेंका जाऊ, उस ओर जहा बैठा हो बुश

या फिर वित्त मंत्री पर फेंको, पर मैं होता नहीं हु खुश

चाह नहीं किसी बड़े ब्रांड का बन अपने पे इठलाऊ

चाह नहीं मैं गाडी में घूमूं और खुद पे इतराऊँ

मुझे फेंक देना उसके सर पर जो कहता हो झूठ अनेक

और कई भी सुधर जायेंगे उसका हश्र जो लेंगे देख

— मनोज “मोजू”

मनोज डागा

निवासी इंदिरापुरम ,गाजियाबाद ,उ प्र, मूल निवासी , बीकानेर, राजस्थान , दिल्ली मे व्यवसाय करता हु ,व संयुक्त परिवार मे रहते हुए , दिल्ली भाजपा के संवाद प्रकोष्ठ ,का सदस्य हूँ। लिखना एक शौक के तौर पर शुरू किया है , व हिन्दुत्व व भारतीयता की अलख जगाने हेतु प्रयासरत हूँ.

One thought on “एक बूट की अभिलाषा

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत करारी पैरोडी !

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