धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द

ओ३म्

प्रत्येक बनी हुई व बनने वाली जड़-जन्तु सामग्री का काई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यदि उद्देश्य न हो तो उस वस्तु को बनाने वाली पौरुषेय या अपौरुषेय सत्ता की उसके निर्माण में प्रवृत्ति ही नहीं  होती। हमें मनुष्य का जन्म मिला है, इस कारण हमारे बनाने वाली कारण सत्ता का अवश्य ही कोई उद्देश्य रहा है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इस व ऐसे अन्य प्रश्नों पर विचार किया था। उन्होंने सृष्टि की आदि में प्रदत्त वा उपलब्ध वेद ज्ञान का भी अध्ययन किया और उसका निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार में एक ईश्वर की ही सत्ता है। यह ईश्वर की सत्ता सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनदि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म देने कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल देने वाली सृष्टि की रचना करने वाली है। मनुष्यों को सृष्टि के आदि काल में वेद ने ही ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप सहित मनुष्यों के अपने व अन्यों के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान कराया था। वेद से शब्दों को लेकर ही मनुष्यों, प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों यथा अग्नि, जल, वायु, आकाश सहित स्थानादि के नाम प्राचीन ऋषियों ने रखे थे जो समय के साथ कुछ उच्चारण दोष, भेद व भौगोलिक कारणों से न्यूनाधिक बदलते रहे हैं।

वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप उपदिष्ट है, वह ईश्वर का सत्य वा यथार्थ स्वरूप हैं। वेद कथित ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप से इतर व भिन्न जितने भी विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन हैं, वह वेद विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या, झूठे व भ्रान्त हैं। संसार के सभी मनुष्यों को सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करते हुए वेद वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को मानना चाहिये और ईश्वर को अपना आदर्श बनाकर उसके अनुरूप ही अपने गुण, कर्म व स्वभाव बनाने चाहिये। मनुष्यों को सुख, कल्याण, शान्ति, समृद्धि, आरोग्य, बल व शक्ति, धन, वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र-पुत्री आदि योग्य सन्तानें प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने स्वयं सृष्टि के आदिकालीन चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। संसार में सर्वोत्तम सुख के साधन इस वेद ज्ञान को मानकर ही ऋषियों ने प्राणपन से इसकी रक्षा की। यही कारण है कि यह वेद ज्ञान सृष्टि के आदि से अब तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष से निरन्तर बना हुआ वा सुरक्षित है। महाभारत काल व उसके बाद यह ज्ञान अप्रचलित व अप्रसारित होने से विलुप्तता की स्थिति में आ गया था जिसका पुनः सूर्यसम प्रकाश ईश्वर द्वारा महर्षि दयानन्द के द्वारा कराया गया। मानव जाति का सौभाग्य है कि आज चारों वेदों का ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए हिन्दी व अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द की यह मानवमात्र को अनुपम देन है। सृष्टि के इतिहास की यह अपूर्व व महानतम घटना है। महर्षि दयानन्द ने स्त्री, अज्ञानी शूद्रों व मनुष्यमात्र के लिए इसे पढ़ने व पढ़ाने का अधिकार दिला दिया है जिससे लोग धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानकर उसके अनुरुप साधना कर अभ्युदय व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यह ज्ञातव्य है कि मध्यकाल व उसके बाद स्त्री, शूद्रों व ब्राह्मणेतर मनुष्यों को वेदों का अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। पौराणिक जगत में आज भी ब्राह्मणेतर लोगों को यह अधिकार नहीं दिया जाता।

हमारा सौभाग्य रहा है कि हम आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द और उनके ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय व उनके जीवनचरित आदि से प्रेरणा ग्रहण कर वेदों का किंचित नाममात्र व सामान्य अध्ययन किया और हमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य, प्रयोजन, मनुष्य जीवन वा जीवात्मा की उन्नति के साधन सहित समस्त दुःखों से मुक्त होने के साधनों वा उपायों का ज्ञान हुआ। इस सबसे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य जीवन की सफलता ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर व उसकी सही व प्रभावकारी विधि से उपासना करने में हैं जिससे मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य पूरा होता है। अतः हमारे संसार के सभी ज्ञानी मनुष्यों का सत्य आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर ही है। उसके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर और उसे अपने जीवन में धारण वा आचरण करने से ही मनुष्य दुःखों से मुक्त होकर सुख व शान्ति को प्राप्त कर सकता है। यह केवल भ्रान्ति नहीं है अपितु धु्रव व अटल सत्य है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रमाणों से सिद्ध किया है और जो सत्य, तर्क व विवेचन की कसौटी पर भी पूर्णतया पुष्ट व प्रामाणिक है। अतः संसार के लोगों को मिथ्या मत-मतान्तरों के जाल से ऊपर उठकर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर वैदिक विधि से उपासना कर अपने-अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर ही संसार के सब मनुष्यों का एकमात्र सर्वोत्तम, परम, श्रेष्ठतम महानतम आदर्श है, इस सत्य को जानकर इस पर दृणप्रतिज्ञ-निश्चय होना चाहिये और जीवन में कोई कार्य ऐसा नहीं करना चाहिये जो इस धारणा के विपरीत हो। हमें यह भी जानना है कि ईश्वर अनन्त काल से हमारा साथी, मित्र, बन्धु व रक्षक है और हमेशा से हमारे साथ है व रहेगा। उसने हमे कभी नहीं भुलाया। प्रत्येक पल वह हमारे साथ है और हमारा हित व कल्याण करता रहता है। हम ही उसे भूले हुए हैं। उसे भूलना ही एक प्रकार से मृत्यु के समान है। जो व्यक्ति ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसका ध्यान व उपासना नहीं करता, वह यस्य छाया अमृतं यस्य मृत्युः’ के समान मृतक मनुष्य के समान है। उस ईश्वर का आश्रय ही मनुष्य को अमृतमय सुख को प्राप्त कराता है और उसे भूलना व उससे दूर होना ही मृत्यु है। हमें ग्राह्य का वरण करना व चुनना है तथा अगाह्य का त्याग करना है।

ईश्वर के बाद हमारे आदर्श महर्षि दयानन्द सरस्वती हैं। वह क्यों हैं? इसलिए की वह साक्षात वेदमूर्ति थे। उनके गुण, कर्म व स्वभाव सर्वथा ईश्वर व वेद की शिक्षाओं के अनुरूप थे। वह ईश्वर से प्ररेणा ग्रहण कर सदैव सत्य व कल्याणकारी कार्य ही करते थे। उन्होंने विद्याग्रहण कर अपने स्वार्थ का कोई कार्य न कर अपने प्रत्येक कार्य को मनुष्य व प्राणी मात्र के हित को ध्यान में रखकर किया। यदि वह न हुए होते और उन्होंने वेदों का ज्ञान प्राप्तकर आर्यसमाज की स्थापना व वेदों का प्रचार न किया होता तो आज हम जो कुछ हैं, वह न होते, अपितु ज्ञान व आचरण की दृष्टि से, उससे कहीं अधिक दूर व गिरे हुए होते। हमारा आहार व विहार तथा अध्ययन व प्रचार उन्हीं के विचारों से प्रभावित व प्रेरित है। हमारा मानना है कि सृष्टि में अब तक हुए ज्ञात मनुष्यों, ऋषियों, मुनियों तथा योगियों में वह अद्वितीय, अनुपम तथा अपनी उपमा आप थे। अन्य जो महात्मा व महापुरुष हुए हैं वह भी अपने अच्छे कार्यों के लिए हमें मान्य हैं, परन्तु महर्षि दयानन्द का स्थान महात्माओं, विद्वानों व सभी महापुरूषों में सर्वोपरि है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि महर्षि दयानन्द का यथार्थ महत्व उनके व उन पर उपलब्घ समस्त साहित्य को पढ़कर, ईश्वर का ध्यान-उपासना व यज्ञ आदि करने व ईश्वर की कृपा होने पर ही विदित होता। अन्य लोगों को हमारी यह बाद स्वीकार्य नहीं होगी जिसका कारण यह है कि उन्होंने महर्षि दयानन्द के मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले विचारों, आचरणों व कार्यों को पूर्णतः जाना व समझा नहीं है। ऐसे लोगों की उन पर की जाने वाली किसी टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है।

ईश्वर संसार का रचयिता, धारणकर्ता, पालनकर्ता व मनुष्य के जन्म व मृत्यु सहित उनके सुख व दुःखों का नियामक है। वह हमारा व सब मनुष्यों, स्त्री-पुरुषो-बाल-वृद्धों, का इष्टदेव होने सहित आदर्श भी है। इसी प्रकार से सृष्टि के ज्ञात मनुष्यों में ईश्वर उपासना आदि श्रेष्ठ कार्य व आचरण की दृष्टि से महर्षि दयानन्द हमारे व संसार के सभी लोगों के आदर्श हैं। कोई जाने या न जाने वा कोई माने व न माने परन्तु यह धु्रव सत्य है। ईश्वर वा महर्षि दयानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलकर ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। उनकी शिक्षाओं के पालन से ही राष्ट्र एक वेद पर आधारित ईश्वरनिष्ठ, संगठित, समृद्ध, सशक्त तथा अपराजेय राष्ट्र बन सकता है। इत्योम्।

मनमोहन कुमार आर्य

6 thoughts on “आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, ईश्वर ने हमे कभी नहीं भुलाया. प्रत्येक पल वह हमारे साथ है और हमारा हित व कल्याण करता रहता है, वह हमारा इष्टदेव भी है और आदर्श भी, कितनी सुंदर बात कही है! अति सुंदर आलेख के लिए आभार.

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते आदरणीय बहिन जी. उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • मनमोहन जी ,लेख अच्छा लगा . सुआमी दयानंद जी एक बड़े फिलोसोफर और गिआनी थे जिन्होंने वेदों के सही अर्थ लोगों को समझाने की कोशिश की लेकिन छूया छात और असमानता अभी भी उसी तरह है . हिन्दू धर्म अभी भी जातिओं में बंटा हुआ है जो भारत्य एकता में एक बड़ी रुकावट है . यही कारण है कि लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर इसाई और इस्लाम ग्रहण कर रहे हैं . हिन्दू धर्म में नफरत की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन प्रेम भावना की बातें बहुत कम हो रही हैं .

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते आादरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पसन्द करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। छुआछूत और सामाजिक असमानता में हमारे अनेक धार्मिक संगठन एवं सरकारी नीतियों का भी योगदान है। इन्होंने वर्गवाद को जन्म दिया है। आरक्षण आदि सुविधा के कारण समाज में विद्यटन सा हो रहा है। सब जातियां व वर्ग अपने अपने स्वार्थों के जाति व वर्ग के आधार पर राजनीतिक संगठन बनाकर जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रवाद आदि के नाम पर देश को कमजोर कर रहे हैं। वैचारिक आधार पर स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ने छुआछूत को एक प्रकार से समाप्त कर दिया है। अब जो छुआछूत है वह बौद्धिक व ज्ञान के आधार पर न होकर अज्ञानता व कुछ गलत धार्मिक मान्यताओं व जन्मगत संस्कारों आदि के कारण हो रहा है। अज्ञानता व जातीय स्वार्थों के कारण लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं है। असमानता तो सरकारी नीतियों के कारण है। आज भी भारत में सबको एक समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था नहीं है। अधिकांश लोग स्कूल के दर्शन ही नहीं कर पाते। शिक्षा मंहगी है व सबके बस में पढ़ना व स्कूल की फीस देना नहीं है। इसका कारण है कि लोगों के पास रोजगार या धन नहीं है कि वह स्वयं पढ़ सके व अपने बच्चों को पढ़ा सके। एक प्रकार से शिक्षा व्यापार बन गई है। असमानता का एक कारण लोगों का नास्तिक होना व छद्म धार्मिक होना है। हिन्दू समाज धन को ही महत्व देता है धर्म वा सामाजिक कर्तव्यों को नहीं। धर्म का तो उसे, उसके पुरोहितों व बड़े बड़े धार्मिक नेताओं तक को ज्ञान नहीं है। आर्यसमाज ने मौखिक प्रचार कर, पुस्तकें लिखकर व अन्तर्जातीय विवाह आदि का प्रचार करके इसे समाप्त करने का प्रयत्न कियाा। आज भारत में बड़ी संख्या में अन्तर्जातीय व प्रेम विवाह हो रहे हैं और जाति के बन्धन टूट रहे हैं वा ढीले पड़ रहे है। आज जो धर्मान्तरण लोग कर रहे हैं वह छुआछूत से कम अपितु लोभ, लालच, बदले की भावना व मिथ्या प्रचार आदि में फंस कर रहे हैं। कई बार मैं सोचता हूं कि हमारे दलित व पिछड़े भाई यदि आपस में मिल जायें, सब आर्यसमाज बना कर उसके वैदिक ज्ञान व शिक्षाओं को अंगीकार कर सन्ध्या, हवन, स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन, ब्रह्मचर्य पालन आदि करें और शराब, मांस, अण्डे, भांग, नशा व बुरे काम छोड़ दें तो सब तरक्की कर सकते हैं। परन्तु लोगों को शिक्षित करना, बुराईयां छुड़ाना, सदाचारी बनाना व उनकी आत्मा की उन्नति करना कठिनतम कार्य है। इस कारण भारत में कुछ सीमा तक छुआछूत व असमानता हमेशा ही रहेगी। इसे समाप्त करना कठिनतम व असम्भव सा है। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

      • मनमोहन जी , आप सच कह रहे हैं लेकिन नास्तिक की परिभाषा भी बहुत गलत की जाती है . नास्तक होना भगवान् को मानना ना मानना नहीं होता, यह तो सिर्फ धार्मिक अंधविश्वासों से ऊपर उठना है . यह भी एक परकार का सुआमी दयानन्द जी का ही सिद्धांत है . रही बात यग्य हवन की, तो जो करना चाहते हैं उस से नास्तक को किया इतराज़ हो सकता है . एक और बात भी है कि सारे लोग इस ज़माने में धर्म की इतनी किताबें पड़ नहीं सकते और अगर पड़ते भी हैं तो बुढापे में आ कर या रिटायर होने के बाद ही पड़ते हैं और इस उम्र में लोगों में यों ही बहुत तब्दीलिआन आ जाती हैं . जिस समय वेद लिखे गए थे उस समय लोगों के पास वक्त ही वक्त था, आज तो किसी को एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है और लगता है लोग दौड़ रहे हैं, साँसें फूल रही हैं लेकिन मंजिल कहीं दिखाई नहीं देती . यह जो अंधी श्रधा में लोग मंदिरों गुर्दुआरों में पैसे पानी की तरह बहा रहे हैं इन को ना मानना ही नास्तिकों का काम है . अछे इंसान बन कर हेराफेरी से बचना झूठ ना बोलना और बुरे कामों से बचना ही नास्तक कहलाता है लेकिन नास्तिक शब्द की परिभाषा बहुत गलत की जाती है .

        • मनमोहन कुमार आर्य

          नमस्ते आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। पहली बात तो यह कहनी है कि मेरा कंप्यूटर पूरी तरह से काम नहीं कर रहा था। लेख पर कमेंट करने वा उनका उत्तर देने में कठिनाई थी। आज बेटे के एक मित्र ने इसे कुछ देर पहले ही ठीक किया है। आपने नास्तिक के बारे में जो कहा है मैं आपकी उन भावनाओं का आदर करता हूँ। हम भी पाखण्ड और अंधविश्वासों की आलोचना करते हैं] अतः लोग हमें भी नास्तिक कहते हैं। पौराणिक लोग महर्षि दयानन्द को नास्तिक व विदेशी एजेंट व न जाने क्या क्या कहते थे। उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि जो सत्य ज्ञान वेदों की निंदा करे वह नास्तिक होता है। वेद ईश्वर का प्रतिपादन करते हैं। जो वेदो का विरोधी हो वह नास्तिक कहा जा सकता है. वेद का अस्तित्व सनातन है। जब कोई मत व धर्म का ग्रन्थ नहीं था उससे भी हजारों व करोड़ों साल पहले से वेद विद्यमान हैं। आजकल के साम्यवादी भी नास्तिक ही होते हैं। यह ईश्वर और धर्म के विरोधी हैं। योग, ध्यान और हवन को नहीं मानते। हवं से वायु सुद्ध होती है यह सर्वविदित है। ईश्वर का अर्थ संसार बनाने वाला और धर्म का अर्थ मनुष्यों के अच्छे गुण व उनका पालन करना है। आपने ठीक कहा है कि आजकल लोगो के पास समय नहीं है। फिर भी कोशिश करके अपनी आत्मा के लिए कुछ समय तो निकाला ही जा सकता है। सादर।

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