कविता

हमारी इज़्ज़त

आज सिंधु की लहरों ने,
ली फिर से अंगड़ाई है,
बूढ़ी साँसों में भी फिर-फिर,
जाग उठी तरुणाई है,
ताल ठोक कर खून जवानों का,
लावा हो जाता है,
धूल चटाने को दुश्मन को,
बच्चा भी इठलाता है,
रणचंडी बनकर हर कलियाँ,
मिटने को तैयार है,
लगता है जैसे हर बाला,
दुर्गा का अवतार है,
सीमा पर जब भी दुश्मन ने,
नंगा नाच मचाया है,
हमने अपनी ताकत का,
उसको लोहा मनवाया है,
हम सरहद पर बैरी की,
ईंटों से ईंट बजा देंगे,
मिले अगर अवसर तो,
घर में घुसआग लगा देंगे,
लाख बार आयेगा दुश्मन,
मिल कर वार सहेंगे हम,
सीनों पर खायेंगे गोली,
या संहार करेंगे हम,
कुरबानी के ग्रंथों में,
अध्याय नया जुड़ जायेगा,
क़फ़न तिरंगे का मेरी,
काया पर भी पड़ जायेगा,
इन भावों के आगे मस्तक,
श्रद्धा से झुक जाता है,
जब भारतमाता का बेटा,
देशभक्त बन जाता है,
लेकिन उस पल कहाँ हमारी,
खुद्दारी खो जाती है?
रिश्वत की लक्ष्मी जब घर के, आँगन में मुसकाती है!
व्यापारी कालाबाज़ारी कर,
दौलत घर भरते हैं,
आय करोड़ों की होती पर,
कौड़ी का कर भरते हैं,
धरमों के झगड़े में मंदिर-मसजिद-गिरजा रोते हैं,
जब जूठन की ख़ातिर बच्चे,
पेट बाँधकर सोते हैं,
देश की सीमा के अंदर जब,
नक्सल-जाल बिछाते हैं,
और किसानों के वंशज जब,
सूली पर सो जाते हैं,
उस दिन क्यों भारतमाता
इतनी बैरी हो जाती है?
कहाँ हमारी लाज-शरम और
इज़्ज़त भी खो जाती है?

शरद सुनेरी