कहानी

“पर्दा में बेपर्दा” कहानी

अजी, सुन रहे हैं बिहाने बिहाने कहाँ जूता चमका रहे हैं। घर- परिवार, नात- बात, अड़ोसी- पडोसी से भी मतलब पड़ता है, सबसे व्यवहार बना के रखना चाहिए। ऐ छोटूवा देख तो निकल गए क्या?
बोलो भागवान बिना तुम्हारा दर्शन किए, कैसे निकल सकता हूँ, मेरे सगुन की सिधरि, कुंहको….. आज बहुत परोपकारी हो गई हो, जब कोई दरवाजे पर गाहे- बेगाहे आ जाता है तो मुंह फुला लेती हो, एक गिलास पानी भी अफीम हो जाता है। खैर, बको, मुझे तहसील जाना है आज मुकदमे की तारीख है, याद है न, पड़ोह के पानी के लिए बड़की भौजी का मल्ल युद्ध। वो देखो…..भैया की सवारी निकल गई……..अब चौराहे तक, करम कुंटना ही पड़ेगा। पड़ गई तुम्हारे कलेजे में ठंठक।
हाँ हाँ, मैं तो हूँ ही बेकार, सही कह दो तो मरचा लग जाता है। मुंह न खुलवावो…….मोकदमा लड़ रहें हैं, बेईमान कहीं का……….
छोटकी का कल रात में फ़ोन आया था, पथरे पर दूब जमी है, निकाशन है सबको बुलाई है, अब जाना तो है ही, तहसील जा ही रहे हो बाजार करते आना, मुन्ना को दो जोड़ी कीमती कपड़ा, दीदी को देखन्तुस साडी और जीजा के लिए पैंट- सर्ट, कुछ खिलौना, मिठाई वगैरह, लेते आना, गरज मत भाठना। पहली बार जा रही हूँ, मेरा भी कुछ मान-सम्मान है की नहीं।
अच्छा जी, तो ये बात है, ठीक है, जोड़ो नए रिश्ते, असली और पुराने की कीमत तो रही नहीं। चली जाना, मैं तो शायद न पाऊँ, और जाकर भी क्या करूँगा, साढ़ूवा नाता और कंहरौवा राम-राम से दूर रहना ही सही है। कहीं सुंदर सी छोटी साली के चक्कर में आ गया तो, तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।

मैं जानती थी, तुम नहीं जाओगे, बहाना मत बनाओ, मेरी बहन भी मेरे जैसी ही है किसी को सूखा घास भी न डाले। अपने आप को समझते क्या हो। मैं थी तो निबह गया, दूसरी होती तो कब की चली गई होती…….कोई गाड़ी भी मंगा लेना, और जाओगे कैसे नहीं, सामान और बच्चे को कौन सम्हालेगा, इस गफलत में तो रहना ही मत। जल्दी सामान लेकर आना, कल की तैयारी भी करनी है। बक्क, हटो, छोडो…..शरम भी नहीं आती, हे भगवान, बाबू देख रहा है……बत्तमीज कहीं के……
बाय, बाय…….
दौड़ते हुए, अरे मुन्नर भईया, रुकिए, मुझे भी चौराहे तक चलना है।
आओ भाई आओ…….बड़े सबेरे….. कोई खास बात?
नहीं भैया, अरे वही, बिनामतलब का मुक़दमा, तारीख……और क्या…….ठीक है भैया, धन्यवाद, आ गया, चौराहा…..हा हा हा हा हा……फुरसत में मिलते हैं, जय राम जी की…….
गहना भौजी गहना भौजी, तनिक दूध मिल जाइ का, कई जगह गई, कहीं नहीं मिला तो हार मान कर यहाँ आई हूँ, मेहमान आएं है और गाय बछड़ा पिला गई……करम जली, नौ मन खाती है, जरुरत पर दगा दे जाती है…….
बैठो बैठो निर्मला बहिनी, हमार व्यवहार जानती ही हो, किसी को मना नहीं करती, धराउँ साड़ी निकाल कर दे देती हूँ। दूध क्या है, लो, ले जाओ, मेहमान तो सबके हैं। झपककर, पसर भर, छुलुकाती हुई…….
भौजी, आज बहुत खुश लग रही हो, कोई खास बात?……भइया, भी आजकल खूब बने ठने रहते हैं, कुछ तो राज है??????
मजाक बहुत करती हो, तुम्ही लोगों ने बिगाड़ा है उन्हें……हा हा हा हा हा….. अरे, ऐसा, कुछ भी नहीं है…..ऊ का हे…..कजरी, मेरी छोटी बहन, तीन साल बाद उसको बेटा पैदा हुआ है, उसी का निकासन है, कल सबको बुलाया है। अब तुम तो जानती हो, अम्मा बाबू जी को अकेले छोड़कर कहीं जाना हो नहीं पाता। तुम्हे बुलाने वाली थी कि दो दिन जरा सम्हाल दो, मैं बहन की ख़ुशी में सरीक हो आऊँ। दिन का तो अम्मा जी दो रोटी बना लेंगी, शाम को तनिक आ जाना, एक तुम्हारे ऊपर ही विश्वास करती हूँ।
ठीक है भौजी, आ जाउंगी, चिंता मत करो, देर हो रही है, मेहमान बैठे हैं………
झिनकू भैया, बाजार लेकर आ गए, तैयारी शुरू……हाँ सुनो तो, पाकिट में से डिबिया निकालते हुए, इसे सम्हाल कर रखना……
ई का उठा लाए, बताओं तो किसके लिए है। अरे…..धीरे से…..सोना है भाई…….
सोना!!!!!
हाँ, सोने की मक्खी है, खाली हाथ जाना मुझे अच्छा नहीं लगता, कल पहना देना, कजरी के मुन्ने को……
गले में हाथों का हार पहनाते हुए, बहुत मानते हो कजरी को…..मौका मिला तो लट्टू हो गए……..
मम्मी मम्मी, गाडी आ गई, जल्दी चलो, निकलो…….हाँ बेटा…… पापा को बोलो, सामान गाड़ी में रख दें, मैं साड़ी बदलकर आ गई……
अभी गाँव का सिवान भी नहीं छूटा था कि, अजी, सुन रहें है, क्या, बाजार के रास्ते नहीं जा सकते, एक छोटा सा काम याद आ गया, रोज रोज तो निकालना होता नहीं…….एक पंथ दुई काम……हो जाता……
अरे भाई ड्राइबर साहब, बायपस मत चढ़ना, बाजार से ले लेना, हाँ साहब, पर भीड़ बहुत होगी…… बचा के, निकाल लेना…..
लो आ गई बाज़ार, क्या लेना है……
कुछ नहीं, मैं सोच रही थी, मेरे पास पंद्रह सौ रूपया पड़े हैं , मक्खी बदल के लक्की ले लेते हैं, आ जाएगी इतने में……
हे भगवान, सीधें कहो न की, मक्खी से मन नहीं भरा……..भाई….. गाड़ी तनिक पीछे ले लो, सोने की दुकान पीछे रह गई……..
चलो उतरो, नाटक मत करो…..
नाराज क्यों हो रहे हैं, खुद भी तो कजरी का बहुत ख्याल रखते हैं मैंने मक्खी लाने को कब कहा था, मुंह न खोलवाइए, हाँ…..
अरे सेठ जी, एक लक्की बता देना, दो ढ़ाई हजार तक…..लीजिए, लगभग चार हजार तक की है, इससे कम में लक्की नहीं आती…….ये मक्खी का घटा दीजिए, पच्चीस सौ दीजिए……देख लो यह ठीक है न……फिर न कहना……
चार आदमी देखेंगे, मंहगाई भी बहुत है, समझ लीजिए…… न हो तो, थोड़ी वजनी मक्खी ही ले लेते है…….
ठीक है सेठ जी, पैक कर दीजिए, पाँच सौ, आते- जाते दे दूंगा……धन्यवाद…..
करीब एक बजे गाड़ी कजरी के घर पहुँच गई। वहाँ उपस्थित महानुभावों ने झिनकू भैया का जोरदार स्वागत किया, आइए आइए, कहाँ है आप का शुभस्थान? आप को पहचाना नहीं…..अरे बाबा, कुछ भी बोल देते हैं आप। मौसा जी हैं, छोटकी चाची के जीजा जी । पालागी मौसा जी, पधारिये……अरे बेटा बुरा न लगाना, कभी देखा नहीं था इसी लिए, पहली बार आए हो न, अब तो आना-जाना लगा ही रहेगा, नए- नए लोग, नया- नया रिश्ता, हम ठहरे पुराने विचार के, जब कोई बताएगा तभी तो पहचानेगेँ। जाओ बेटा, अंदर ही चले जाओ, वहीँ आव-भगत होगी……हाँ मौसा, सही है, चाचा और चाची बुला भी रहें है, आइए……
क्या जीजा जी आप तो भूल ही गए, परनाम, देखिए और बताइये किस पर गया है। बता पाना मुश्किल है पर मुझपर तो नहीं गया है…..देख न दीदी, जीजा जी कैसा मजाक कर रहें……
तुम लोग, आपस में बातें करो मैं दरवाजे पर जाकर बैठता हूँ। घर में शोभा नहीं देता, शाम हो गई है, खाना हो जाय तो निकलना भी है।
अजी सुनते हैं, आज रात रुक जाइए न, पेट भर बतिया भी नहीं पाए……हाँ हाँ दिदिया, हमरे मुंह की बात छीन ली, कैसे नहीं रुकेंगे, आएं है अपनी मर्जी से जाएंगे हमारी मर्जी से……देखो कजरी जिद ना करो…..बात को समझो……गाड़ी किराए की है……
सबको सांप सूँघ गया, किराए शब्द ने सारी ख़ुशी पर कुठाराघात कर दिया……इतने में आवाज आई मौसा जी, मौसा जी, बाहर आइए, देखीए तो पापा और छोटका चाचा में बहुत जोर का झगड़ा हो रहा है। जल्दी से उठते हुए, क्या हुआ जीजा जी देखिए न, आज सुबह से ही घर में खुसर-पुसर हो रही है, न जाने क्या चाहते हैं लोग, ख़ुशी के मौके पर भी चैन की साँस नहीं लेने देते…..
सभी लोग दरवाजे पर आ गए, दोनों भाइयों का मल्ल युद्ध देखने, झिनकू भैया……अरे भाई क्या बात हो गई आप दोनों के बीच, शांत रहिए, ऐसे मौके पर आपस में तंगदिली ठीक नहीं है।
बस यही तो चाहते थे कजरी के जेठ जी,…..आप तो चुप ही रहिए, जब से आएं हैं घर में घुस बैठे हैं, मर्द का काम घर के अंदर नहीं बाहर होता है, क्या जमाना आ गया, बहिन बेटी को बुलावा नहीं गया और सढुवा नाता चढ़ बैठा। हम दोनों भाई लड़ें या प्रेम करें आप से क्या मतलब??????
सब चुप……सन्नाटा छा गया…… झिनकू भैया किंकर्तव्य विहीन हो माथा पकड़ कर बैठ गए……बिनाहद की रेखा में बध कर आए थे अब बेपर्दा होकर ड्राइवर को आवाज दिए, चलो भाई अब यहाँ एक पल भी रुकना हितकर नहीं है……हर लोग गाड़ी में बैठे गए, मान मनुहार अपनी जगह आंसू बहाने पर मजबूर हो गया, गाड़ी सड़क पर ख़ुशी की धूल उड़ाते हुए दौड़ने लगी…..कुछ देर बाद, सन्नाटे ने दम तोड़ा, बड़े बत्तमीज लोग है अब वहां जाने जैसा नहीं है……बहन के नाते, सब सह गई बरना वहीँ पर बता देती कि हम कितने इज्जतदार हैं……..सुन रहे हैं बाबू को भूख लगी है किसी होटल पर रुकिए कुछ खिला देते हैं जो हुआ सो हुआ, इसमें क्या चिंता करने की बात है……उतार दीजिए पराए का बोझ, अपने सौ गुना अच्छे हैं……

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ