उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –१४

अमर मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं सो पाया था कि सामने के कमरे से एक अस्पताल कर्मी बाहर आया और अमर को जगा कर उसे दवाई की पर्ची थमा दिया । धनिया की सेहत के बारे में पूछने पर उसने पहले से बेहतर है इतना ही बताया और साथ ही यह भी बताया कि इस पर्ची में लिखी दवाइयां अत्यंत जरूरी हैं जिन्हें जल्द ही लाना है ।

अमर ने उसके हाथ से पर्ची लेते हुए अपनी जेब में हाथ डाला ।  जेब में चंद रुपये ही उसे मिले जिनसे वह नाश्ता तो कर सकता था लेकिन दवाइयां नहीं खरीद सकता था ।

अस्पताल ने वहाँ उपलब्ध दवाइयों से धनिया का इलाज शुरू कर दिया था । पर्ची में लिखी वो दवाइयां थीं जो अस्पताल में उपलब्ध नहीं थीं और उनकी धनिया को सख्त जरुरत थी । अमर की जेब में पैसे नहीं थे फिर भी हाथ में पर्ची लिये वह अस्पताल से बाहर निकला ।

अस्पताल के बाहर नीकल कर अमर का जी चाह रहा था कि फूट फुट कर रोये । रोने की ही बारी तो थी उसकी ? धनिया को दवाई की आवश्यकता थी लेकिन उसके पास दवाई खरीदने के पर्याप्त पैसे भी नहीं थे । कितना मजबूर था वो ? अब क्या करे ? पैसे का इंतजाम कैसे कर पायेगा ? बिना पैसे का इंतजाम किये वह दवाई नहीं खरीद पायेगा । और धनिया को समय पर दवाई नहीं मिली तो ? हे भगवान ! ‘ सोच सोच कर ही अमर के दिमाग की नसें तन गयी थीं ।

सड़क के किनारे चलते हुए उसे ऐसा लगा जैसे उसकी टांगें निर्जीव हो गयी हों उनमे कोई जान न हो । वह संभल कर फूटपाथ पर ही एक किनारे बैठ गया ।

दोपहर की कड़ी धुप का भी उसपर कोई असर नहीं हो रहा था । उसका दिल और दिमाग तो इस समय पैसे की कमी से जूझ रहा था । तन का होश उसे कहाँ था ?

उसका अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था । काफी पीड़ा के साथ उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढँक लिया और फफक पड़ा । तभी उसके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी । अपने हाथों की उंगलियों में पड़ी सोने की दो अंगूठियों पर उसका ध्यान गया और उसका मन मयूर नाच उठा । इस तरफ ध्यान जाते ही उसने इश्वर को इसके लिए धन्यवाद दिया कि समय रहते उसने इस तरफ अमर का ध्यान आकृष्ट करा दिया था ।

घर से निकलते हुए भले ही अमर ने अपनी तरफ से कुछ नहीं लिया था लेकिन रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजें जैसे घडी ‘चैन वगैरह अनजाने में ही उसके पास ही रह गयी थीं ।

अब और देर न करते हुए अमर वहाँ से पैदल ही मुख्य बाजार की तरफ लगभग दौड़ पड़ा जहां कतार से सुनार की कई दुकाने थीं ।

उनमें से एक दूकान पर पहुँच अमर ने अंगूठी बेचने की इच्छा जाहिर की । दुकानदार द्वारा रसीद मांगे जाने पर उसने अपनी परिस्थिति और आवश्यकता की बाबत बताया और साथ ही दवाई की पर्ची दिखाते हुए असरदार तरीके से उसे भरोसा दिलाया । दुकानदार ने उससे पूर्ण पता और नाम वगैरह लिखाकर उसे शीघ्र ही रकम की अदायगी कर दी ।

रकम पाकर अमर ने दुकानदार को अनेकानेक धन्यवाद दे अस्पताल का रुख किया । तेज कदमों से चलता हुआ अमर शीघ्र ही अस्पताल के नजदीक  स्थित मेडिकल स्टोर तक पहुँच गया ।

वहाँ से सभी दवाइयां खरीदकर अमर अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष के सामने पहुंचा ही था कि बाहर बरामदे में ही सरजू को खड़ा देख उसके पैर वहीँ ठिठक गए । उसके साथ ही धनिया के पिताजी बाबू हरिजन भी थे । लेकिन अगले ही पल उनसे उलझने का ख्याल झटक कर अमर सीधे गहन चिकित्सा कक्ष में जा पहुंचा ।

कक्ष का प्रवेश द्वार  पार करने पर अंदर के कमरे में ही कई डॉक्टर्स बैठे हुए थे । एक नर्स ने अमर के हाथों से दवाइयों की थैली लेकर उसे बाहर जाने का ईशारा किया । अमर ने उसकी बात अनसुनी करते हुए उससे एक नजर धनिया को देखने देने का निवेदन किया ।

नर्स के नानुकुर के बावजूद अमर ने अपना अनुग्रह जारी रखा जिसे देखते हुए डोक्टरों में से एक ने उसे अन्दर बुलाया । अमर उसे धन्यवाद देते हुए अन्दर धनिया के बेड की तरफ बढ़ा । अन्दर सभी बेड पर मरीज पड़े हुए थे । तरह तरह की मशीनें मरीजों के जिस्मों से लगायी गयी थीं । उस कक्ष में दाखिल होते ही अमर के मन में सहज ही करुणा का भाव जागृत हो उठा था । कतार के अंत में धनिया उसे बेड पर पड़ी हुयी दिखी । कई तरह की मशीने उसके बेड के इर्दगिर्द लगी हुयी थी । उसके जिस्म में लगी सुई के द्वारा उसे दवाई पहुंचाई जा रही थी । धनिया आँखें बंद किये ही कभी कभी कराह उठती । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह गहरी नींद में हो । अमर बिलकुल ख़ामोशी से धनिया की तरफ देखे जा रहा था और मन ही मन भगवान से उसकी बेहतरी के लिए प्रार्थना किये जा रहा था ।

धनिया के सर पर मोटी सी पट्टी बंधी हुयी थी ।

अचानक धनिया ने एक कराह के साथ आँखें खोल दी । अपने होठों को भींचे वह अपने दर्द को भीतर ही भीतर जज्ब करने का प्रयास कर रही थी । धनिया की कराह सुनकर अमर तड़प उठा था लेकिन साथ ही उसने दोनों हाथ जोड़कर तुरंत ही इश्वर का धन्यवाद् भी किया । धनिया की तकलीफ से जहां वह दुखी था वहीँ अब उसे खतरे से बाहर पाकर उसके मन के किसी कोने में अपार ख़ुशी भी कुलांचे मार रही थी ।

धनिया अब पूरी तरह होश में आ चुकी थी और उसकी निगाहें अपने चारों तरफ का मुआयना कर रही थीं । धनिया की मनोदशा को शायद भांपते हुए ही अमर तुरंत उसके सामने आ गया । अमर पर नजर पड़ते ही धनिया के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी । ऐसे जैसे अपना सारा दर्द भूल गयी हो और उठने की कोशिश की लेकिन नर्स ने तुरंत ही उसे कंधे से पकड़ कर हिलने से भी मना कर दिया । धनिया की आँखों में बेबसी के आंसू तैर गए । अमर का दिल भी जार जार रो रहा था लेकिन मन के भावों को वो चेहरे पर नहीं आने दे रहा था और चेहरे पर मुस्कान लिए ही उसने धनिया का सामना किया था ।

नर्स ने अमर से अब बाहर जाने का आग्रह किया और अमर चूँकि पढ़ा लिखा और समझदार था जानता था कि इसीमें धनिया की बेहतरी थी सो धनिया को एक बार भरपूर नजर से देखने के बाद वह स्वयं ही कक्ष से बाहर की तरफ बढ़ गया ।

कक्ष से बाहर जाने से पहले अमर ने डॉक्टर से धनिया की सेहत के बारे में पूछा । डॉक्टर ने बताया धनिया के सभी टेस्ट सामान्य आये थे । अतः चिंता की कोई बात नहीं । दिमाग में चोट लगी है लेकिन आश्चर्य जनक रूप से कोई नुकसान नहीं हुआ । कुछ कमजोरी है रक्त काफी बहने की वजह से । दिमाग के एक दो और टेस्ट लेकर उन्हें सामान्य पाए जाने पर अस्पताल से जल्दी ही छुट्टी दे दी जाएगी । जल्दी ही इसे सामान्य कक्ष में भेज दिया जायेगा ।

बाहर बरामदे में सरजू और बाबू दोनों ही खडे जैसे उसके आने का ही इंतजार कर रहे थे । अमर के बाहर नीकलते ही बाबू तेज कदमों से उसकी तरफ आ गया और नजदीक आते ही उसके कदमों में झुक गया ।

अचानक हुए बाबु की इस हरकत के लिए अमर तैयार नहीं था । चौंक कर दोनों हाथों से बाबू के कंधे पकड़ बोल पड़ा ” काका ! यह क्या कर रहे हो ? बड़े छोटों के कदमों में नहीं झुका करते बल्कि छोटों को अपने कदमों में झुका कर उन्हें आशीर्वाद दिया करते हैं । ”

अब तक सरजू भी अमर के नजदीक पहुँच चूका था । दोनों हाथ जोड़ते हुए बोल उठा ” मुझे माफ़ कर दो अमर बाबु ! मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ । मेरी वजह से आज धनिया की यह हालत है । ”

अमर अभी सरजू को कुछ जवाब देता कि बाबू बोल पड़ा ” छोटे मालीक ! अब कैसी है हमारी बच्ची ? वह ठीक तो है न ? होश में आई कि नहीं ? ” एक साथ कई सवालों की झड़ी लगा दी थी बाबू ने ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।