गीत/नवगीत

गगन का चादर

बिस्तर मेरी धरती मैया
और गगन का चादर है
वही ओढ़ना वही बिछौना
मन मेरा ज्यूँ सागर है

तन मैला पर मन है निर्मल
और कोई परवाह नहीं
पेट भरे हों मेरे बस मुझे
और कोई है चाह नहीं

लोभ मोह मद क्रोध मुझे भी
मैं कोई भगवान नहीं
हाँ ! लेकिन मैं इन्सां हूँ
दूजों जैसा शैतान नहीं

लालच में अंधे होकर
जो इन्सां का खून पीते हैं
सच मानो इन्सां होकर भी
खटमल सा वो जीते हैं

मखमल के गद्दों पर सोकर
वो करवट ही बदलता है
नींद कहाँ आती है उनको
तारे गीनते रहता है

नींद चैन और सुख संतुष्टि
कोसों दुर ही रहती हैं
वो कैसे पाएंगे यह सब
मेरे घर में बसती हैं

इसीलिए तो मैं खुश हुं
मेरी भरी प्रेम की गागर है
बिस्तर मेरी धरती मैया
और गगन का चादर है

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।