सामाजिक

कुछ ज़माना बदले ,कुछ हम

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हम भी प्रकृति का ही एक हिस्सा हैं. इसलिए हमारे विचारों में परिवर्तन आना भी स्वाभाविक है. कभी-कभी हम सोच में पड़ जाते हैं, कि हम भारतीय कहां खड़े हैं? एक तरफ तो हम अपनी भारतीय संस्कृति की बातें करते हैं और दूसरी तरफ हम बदल भी रहे हैं, फिर कहते हैं लो जी! अब ज़माना बदल गया! हम अपनी पुरानी सभ्यता को पकड़े हुए कलयुग, यानी machine age में धंसते जा रहे हैं. इस संगम के बीच में हम मुश्किलें भी झेल रहे हैं. पुराने ज़माने में पुरुष ही घर के बाहर काम करते थे, औरतें घर में रह कर दूसरे काम किया करती थीं. बेटियों को बाहर जाने की इजाजत नहीं थी, क्योंकि बेटियों की इज़्ज़त को बहुत ऊंचा माना जाता था. बस यह ही होता था कि बेटियों को मां, घर के सारे कामों में निपुण कर देती थी और उस की शादी कर देते थे. यह हमने अपनी ज़िन्दगी में देखा है. हमारी माताएं-बहिनें भी अनपढ़ रही थीं. फिर भी उस समय बहुत-सी महिलाएं राजनीति में भी आईं और कॉलेजों की प्रिंसिपल भी बनीं. ये वो महिलाएं थीं, जिनके माता-पिता प्रगतिशील विचारों के थे और वे चाहते थे, कि उनकी अपनी भी कुछ पहचान बने. उनकी देखादेखी अन्य बेटियों को भी आगे बढ़ने का मौका मिला. पहले पहल हमारे गांव में चार लड़कियां हमारी क्लास में आईं. स्कूल में तो हम छोटी-मोटी बात लड़कियों से कर लेते थे, लेकिन स्कूल के बाहर बिलकुल उन से कोई बात नहीं करते थे. यह उस ज़माने की बात थी और सोच थी.

अब बात घर की करते हैं. उस वक्त सासू मां का घर में राज होता था. हर मां का सपना होता था कि बहुएं घर में आएंगी, तो उस को सुख मिलेगा. उस समय यही मानसिक सोच होती थी. बहुओं पे राज करने की सोच अब भी बरकरार है, इसी लिए तो पोती के जनम पर बहुओं को बहुत दुःख दिए जाते हैं. पहले मिट्टी के तेल से फिर रसोई गैस से बहुओं की हत्याएं हो रही हैं. संयुक्त परिवार हमारी मजबूरी है, इस लिए दो-दो, तीन-तीन बहुएं और उन के बच्चे एक घर में रहते हैं. जो लड़ाइयां-झगड़े इन परिवारों में होते हैं, वो भी हमने अपनी आंखों से देखे हैं. थोड़े-बहुत सुखी परिवार भी देखे हैं, लेकिन जिस को हम संयुक्त परिवार बोलते हैं, वह आर्थिक मजबूरी ही है. संयुक्त परिवार में अगर इतफाक हो तो यह एक कोऑपरेटिव सोसाइटी की तरह होता है, जिस में सब मिलजुल कर काम करते हैं. यह भी पहले की सोच थी, अब ये विचार भी बदलते जा रहे हैं. भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति की पैठ होती जा रही है और एक नवीन भारतीय संस्कृति उजागर हो रही है.

अब नए युग की बात करते हैं, जो लड़कियां कभी घर के बाहर नहीं जाती थी, आज बाहर जा कर दफ्तरों में काम करती हैं. एक तरफ भारतीय संस्कृति है, कि सास ही घर की हैड होती है और दूसरी ओर आज की पढ़ी-लिखी बहुएं जो अब नुक्ताचीनी सहार नहीं सकतीं, लेकिन छोटे बच्चे होते हैं, काम पर भी जाना होता है और आज कल अच्छे-से-अच्छे स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की प्रतियोगिता है, इस लिए बहू को सब कुछ सहन करना पड़ता है. यहां भी मिश्रित विचार दिखाई देते हैं. कई बहुएं अपना घर, अपना राज चाहती हैं और उसके लिए कुछ भी करने-सहने को तैयार रहती हैं.

कहा जाता है, कि हर बीस साल बाद जेनरेशन गैप आ जाता है. मेरी बेटी इंग्लैंड की जम्पल है. वह कहती है, कि उस की 27 साल की बिटिया के सामने वह अनपढ़ महसूस करती है, क्योंकि आज की जेनरेशन बहुत आगे है. जैसे ही बहू अच्छी तरह पैर जमा लेती है, तब तक सास बूढ़ी हो चुकी होती है, लेकिन उस की पुरानी राज करने वाली आदतें जाती नहीं हैं, जिस से गृह-क्लेश होने लगता है. अब सास अपनी बहू के रहमोकर्म पर निर्भर हो जाती है. कई घरों में तो सास-ससुर को बहुत दुःख झेलना पड़ता है और फिर सास के हक में कथाएं बनने लगती हैं और पीठ पीछे लोग बहू की निंदा करते हैं. यह कोई नहीं सोचता, कि कभी इस सास ने भी बहू पे कितने ज़ुल्म किये थे. हम सब चाहते हैं कि अपने पोते-पोतियों के साथ वक्त गुज़ारें, लेकिन आज कल सभी भाग्यशाली नहीं हैं. शायद यह सब नवीन युग के कारण है. पहले ज़माने के संयुक्त परिवार में घर के किसी सदस्य ने काम न भी किया, तो काम चल जाता था. आज किसी को एक छुट्टी लेना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि काम की सुरक्षा पहले है. आज की पीढ़ी पर यह एक बड़ा बोझ है. यहां भी परिवर्तन आने लगा है. आज सारा काम लैपटॉप से होने लगा है और किसी को छुट्टी लेने की भी ज़रूरत नहीं है. Work from home का Massage दे दो, घर में रहो और घर-ऑफिस दोनों संभालो. यहां भी परिवर्तन दिखाई देता है. एक समय था, जब घर की ज़िम्मेदारी पत्नि की थी. अब पति-पत्नि आपस में मुक्त रूप से परामर्श करते हैं, जिसका काम ऑफिस में ज़्यादा ज़रूरी होता है, वह ऑफिस जाता है, दूसरा घर में रहकर दोनों काम संभालता है. यहां यह बता देना भी ज़रूरी है, कि अब लड़कों को भी बचपन से ही सब काम करना सिखाया जाता है, ताकि आगे जाकर उसे परेशानी न हो.

फिर भी सास ससुर के राज की बातें समय-समय पर बाहर आने लगती हैं, जिस से संयुक्त परिवार को ग्रहण लगने लगता है, इसी से “सास बहु और साजिश ” जैसे सीरियल बनते हैं और यही कारण है, आज कल के वृद्धाश्रम जो अभी बहुत कम हैं, बन रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे इनमें इज़ाफ़ा हो रहा है. इस लिए हम को चाहिए कि हम भी अपनी सोच को बदलें और मान लें, कि यह नया ज़माना है. ऐसा हो भी रहा है. बहुत-से लोग वृद्धाश्रम, जिनको अब ‘रिटायर होम’ कहा जाने लगा है, में रहकर बहुत खुश हैं. वहां उन्हें अपनी पीढ़ी के साथी मिल जाते हैं.

अंत में हम यही कहना चाहेंगे, कि हम बड़े अब अपनी सोच को बदलें और बच्चों पर ज़्यादा बोझ न डालें. अपनी old age के लिए व्यवस्था करें, ताकि अगर बहू तंग करे, तो अपनी सेक्योरिटी होने पर बुढ़ापा अच्छी तरह बीतेगा. इमोशनल हो कर अपना सारा सरमाया बच्चों को देना उचित नहीं है. अगर आप धन-सम्पत्ति से भी सक्षम हैं, तो आप की सेवा ठीक-ठाक होती रहेगी. आखिर में तो सब बच्चों को ही जाना है. अगर बृद्धाश्रम में जाना पड़ भी जाए, तो इस के लिए भी तैयार रहना चाहिए. सभी के बच्चे बुरे नहीं होते, बच्चे जरूर मिलने आते हैं. हम को भी खुदगर्ज़ बन कर बच्चों की इमोशनल ब्लैकमेल नहीं करनी चाहिए. आपसी समझ से ही युग-परिवर्तन को दोनों पीढ़ियां स्वीकार कर सकती हैं. इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ-

”कुछ ज़माना बदले कुछ हम,
फिर किसी को नहीं कोई गम.”