कविता

दुःख में पुलकित हो तो जानें

बीत गईं पतझड़ की घड़ियां,
अब बसंत मुस्काएगा,
रे मन, अब तो धीर धरो फिर,
मन मधुमय हो जाएगा.

 

कल तक जो थे अपत-कंटीले,
आज कोंपलें उन पर शोभित,
कलियां जैसे ही मुस्काईं,
भौंरे हो जाएंगे मोहित.

 

मन-पंकज को दुःख की पंक से,
पंकिल क्यों होने देते हो?
मुख-मंडल को म्लान कसक से,
शंकित क्यों होने देते हो?

 

कण सम दुःख को समझ मेरु सम,
क्यों भरते हो दुःख-उदधि को,
कैसे तैरेगी सुख-नैय्या,
बहकेगी पतवार निधि तो?

 

सुख में तो सब हर्षित होते,
दुःख में पुलकित हो तो जानें,
रैन-दिवस उजियार-तमस में,
रहो एकरस तो हम मानें.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244