लघुकथा

दीवार

सिमरन की गोद में उसके भतीजे की तीन साल की बेटी बुआ दादी कहकर चढ़ गयी। उस मासूम को गोद में इस तरह देखकर सिमरन की आँखों के सामने वो दृश्य आया जिसको देखकर कुछ पल के लिए तो सिहर गयी। उस बच्ची की मासूम आँखों में उसको लगा जैसे कोई उसकी कोख से उससे सवाल पूछ रहा था, ‘माँ, हमें क्यों मार दिया, हमारा क्या कुसूर था?’
पति के थप्पड़ कानों में गूंज रहे थे, ‘समझती क्यों नहीं, मुझे बच्चे नहीं चाहिए।’
‘पर इस तरह से दो की बलि चढ़ा चुके हो? आखिर क्यों किया ऐसा?’
‘मेरी मर्जी, मैं क्यों किसी चीज का उपयोग कर अपनी मर्दानगी को ठेस पहुँचाऊँ? तुम मेरी पत्नी हो, तुम वही करोगी जो मैं चाहता हूँ।’
मन को मारकर रह गयी सिमरन। उसकी आंखों में दो छोटे-छोटे बच्चे थे जो उसको ताक रहे थे। अकेली रोती बिलखती छोड़कर उसका पति जा चुका था। सिमरन अपने कमरे की दीवारों से पूछ रही थी, ‘सुना है तुम्हारे भी कान होते हैं? क्या इस जुल्म से कभी मुक्त हो पाऊँगी? क्या इस व्यक्ति को करारा जवाब देना चाहिए।’ उसके दोनों बच्चे उससे चिपके हुए पुकार रहे थे, ‘माँ भूख लगी है।’
‘बुआ दादी…!’ आवाज सुनकर वह अतीत से वर्तमान में आई। भैया की पोती को खूब प्यार किया। आज भी दीवारेँ सिमरन पर हंस रही थी मानो कह रही हो, ‘अरे बेवकूफ औरत, हमारे कान वहीं होते हैं जहाँ कोई खबर मसालेदार हो। घर में होते अत्याचार तो आम बात है।’

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377