सामाजिक

सुख और दुःख में समभाव रहें.

जीवन में कभी किसी को पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती है.व्यक्ति जीवन भर असंतुष्ट बना रहता है और इस असंतोष के लिए ईश्वर को ही दोष देता रहता है.कभी वह यह नहीं मानता कि उसके साथ सब कुछ ठीक ही हो रहा है,अच्छा ही हो रहा है.उसे जो भी मिलता है ,वह कम ही लगता है .वह तुलना हमेशा उस व्यक्ति से करता है जिसे जीवन में उससे अधिक मिलता है और शायद दुःख का कारण भी यही है.व्यक्ति जो मिला है उसी से संतुष्ट हो जाए तो दुखी होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता लेकिन वास्तविक जिन्दगी में ऐसा होता कहाँ है ! जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं.सुख और दुःख दोनों समानांतर अवस्थाएं हैं,कभी आप अपने आपको दुनिया का सबसे सुखी व्यक्ति मानेंगे तो अगले ही पल आप महसुस करेंगे कि नहीं आप ही दुनिया के सबसे दुखी आदमी हैं.
आजकल की भागदौड़ भरी जिन्दगी में सुखी व्यक्ति भी अपने आप को सुखी नहीं मानता क्योंकि जीवन में खालीपन,नीरसता ,बोझलता हावी होने लगी है.तनावपूर्ण जिन्दगी होने के कारण जीवन के प्रति उत्साह में कमी आने लगी है और इसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने आप को दुनिया का सबसे दुखी व्यक्ति मानने लगता है.अपने दुखों से निजात पाने के लिए ज्योतिषियों ,भविष्यवक्ताओं ,साधु -संतों के चक्कर लगाने लगता है.यहाँ भी उसकी जेब खाली होने और असंतोष और अधिक बढाने के सिवाय उसे कुछ भी नहीं मिलता .जिस व्यक्ति के पास कुछ भी नहीं है वह भी और जिसके पास भौतिकवादी सभी सुख-सुविधा मौजूद है वह भी दुखी है.यदि किसी भविष्यवक्ता के पास जायेंगे चाहे वह कुंडली द्वारा भविष्य देखता हो या हस्तरेखा ,अंकशास्त्र,वास्तुशास्त्र,प्रश्नकुंडली या अन्य कोई विधा से ,वह यही कहेगा कि आपका समय अच्छा नहीं चल रहा है.और अमुक अमुक उपाय कर लो तो इतने इतने समय में सब कुछ ठीक हो जाएगा.लेकिन क्या इतने भर से हरेक का समय सुधर जाता है,नहीं न ! परिवार में कोई एक अकेला व्यक्ति तो रहता नहीं है,सभी के सितारे अलग-अलग स्थिति में रहते हैं ,किसी एक के लिए कोई उपाय कर भी लिये और मान लीजिए कि इससे कुछ चमत्कार होता भी है तो भाग्य तो एक का ही सुधरेगा बाकी जनों का क्या ! यदि एक व्यक्ति किसी तरह सुखी हो भी गया तो क्या बाकी सभी व्यक्ति अपने आप को सुखी मान लेंगे !क्या उनके दुःख एक व्यक्ति के सुख को देखकर दूर हो जायेंगे ,नहीं न ,तब फिर यह अंधी दौड़ क्यों ?क्यों नहीं सब मिलकर हालात के साथ चलें,हर परिस्थिति का डटकर सामना करें.
मैं एक परिवार को जानता हूँ जो पहले तो किराए के मकान में जीवन बसर करते थे .दो कमरे का मकान था और मकान मालिक की दखलंदाजी भी बहुत थी लेकिन फिर भी वे अपने हालात से संतुष्ट थे और उसी में सुख की अनुभूति करते थे .बाद में जैसे तैसे करके एक कॉलोनी में मकान बनाया लेकिन यहीं से दुर्भाग्य ने भी पीछा पकड़ लिया.कुछ समय ही गुजरा होगा कि पिता को केंसर हो गया और असमय ही चल बसे,माता भी बीमार रहने लगी.बड़े भाई की पत्नी बीमार रहने लगी तो वे भी मकान छोड़कर अन्यत्र किराए के मकान में रहने चले गए .छोटे भाई की नौकरी भी स्थायी नहीं थी.उन्होंने किसी वास्तु के जानकार से सलाह ली और सलाह के अनुरूप मकान के दक्षिण मुखी होने के कारण प्रवेश द्वार की दिशा बदलवा दी,फिर भी दुर्भाग्य दूर नहीं हुआ.अन्य जानकार ने सलाह दी कि घर के सामने नीम्बू का पेड़ नहीं होना चाहिए,यह कांटेदार वृक्ष है,इसे निकलवा देना चाहिए.बारहमासी फल देने वाले नीम्बू के पेड़ को बेरहमी से कटवा दिया गया.इसी तरह घर के सामने लगे अनार और आंवले के वृक्ष को भी किसी जानकार की सलाह पर काट दिया गया लेकिन दुःख और दारिद्रय समाप्त नहीं हुए,अलबत्ता फलों से वंचित अवश्य ही हो गए और यह भी दुःख का कारण बन गया.
व्यक्ति यह नहीं सोचता कि जीवन मरण और परण पूर्व निर्धारित है,इसमें किसी को दोष नहीं दिया जा सकता.इसी प्रकार बीमारी के लिए भी व्यक्ति को अपना खान-पान और दिनचर्या पर भी ध्यान देना चाहिए .आर्थिक स्थिति के लिए भी कर्म की प्रधानता को स्वीकार करना चाहिए ,भाग्य भरोसे बैठे रहने से कुछ हांसिल नहीं होता.हाँ ,यह हो सकता है कि कुछ लोगों को अल्प प्रयास पर बहुत कुछ हांसिल हो जाए और कुछ लोगों को बहुत प्रयासों के बाद अल्प मात्रा में ही सफलता मिलती है लेकिन यहाँ प्रयासों में कमी ,सही दिशा का ज्ञान न होना अथवा अन्य अनेक कारण हो सकते हैं .अपनी कमियों को स्वीकार न करते हुए दूसरों की सफलता से ईर्ष्याभाव और अपनी असफलता के लिए ईश्वर को दोष देना कहाँ तक उचित ठहराया जा सकता है.स्वयं की सफलता हेतु गंडे-ताबीज ,रत्न आदि काम नहीं आने वाले, इसके लिए तो आपको ही पूर्ण मनोयोग से कार्य करना होगा और जो मिल रहा है उसी से संतुष्ट भी होना होगा.साथ ही अधिक पाने के लिए और अधिक सार्थक प्रयास करना होंगे.
यहाँ एक बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि जब तक आपके साथ सबकुछ अच्छा चल रहा होता है और आपके अनुकूल ही मिलता जाता है,तब तो आप अधिक से अधिक केवल ईश्वर का धन्यवाद ही प्रकट करते हैं,तब यह नहीं कहते कि हे ईश्वर,सब अच्छा ही अच्छा क्यूँ करते चले जा रहे हो ,इतना सुख बर्दाश्त के बाहर है.क्या ऐसा नहीं होना चाहिए! जहां हम दुखी होते हैं तो कहना चालु कर देते हैं कि सारे दुःख मेरी ही किस्मत में ! और कितनी परिक्षा लेगा भगवान्.इन दुखों का कब अंत होगा !हमें सुख और दुःख दोनों ही अवस्थाओं में समभाव होना होगा,संतुष्टि का भाव भी जगाना होगा ,तभी जीवन बोझ नही लगेगा .क्या इतना सकारात्मक सोच नहीं रखा जाना चाहिए.
डॉ प्रदीप उपाध्याय,१६,अम्बिका भवन,बाबुजी की कोठी,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड़,देवास,म.प्र.
9425030009(m)

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009