कविता

तू चल कि तेरी…

तू चल कि तेरी हथेलियों को बहुत से पत्थर निचोडने हैं ,
तू चल की तेरी बेबसी को बहुत से कानून तोडने हैं |
सहेगीं तू युँ ही अत्याचार कब तक ?
कटेगें युँ तेरे विचार कब तक ?
टुटेंगें युँ तेरी पँख कब तक ?
टुटेंगें सपनों के शंख कब तक ?
ठगेगा युँ समाज कब तक ?
लुटेगीं युँ तेरी लाज कब तक ?
जो भय है तुझे उसे तू क्रोध कर दे ,
विवसता का अब तु विरोध कर दे ,
मिलेगा किस तरह न्याय तुझको ,
ढुँढना है ये उपाय तुझको |
कठोर अग्नि परीक्षा ये कब तक चलेगी ,
तू इक चिता की तरह कब तक जलेगी ?
तू धुल को अब गुलाल कर दे ,
समय के सूरज को अब लाल कर दे ,
जो चोट अब मन में दबी दबी है ,
उसे बढा कर अब तू मशाल कर दे |
जो तेरे अस्तित्व को नकारे वो पुस्तकें आज फाड दे ,
जिसे फाडे ना कोई आँधी ,
शिखर पर वो सूर्य गाढ दे तु ,
तू चल की तेरी हथेलियों को बहुत से पत्थर निचोडने हैं ,
तू चल की तेरी बेबसी को बहूत से कानून तोडनें है ||

~ राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 raajsingh1996@gmail.com