गीतिका/ग़ज़ल

हाय ये इश्क

उसकी चाहत में न जाने क्या – क्या कर बैठें।
सुबह को शाम और रात को दिन समझ बैठे।
आएगी वो पास मेरे इक ना इक दिन,
आश हिबड़े में तब से लगाए बैठे थे।।
उसके राहों में फूलों की घाटी बसा देते हम,
हंस के कहती तो जां भी लूटा देते हम।
रोज़ डे को वो रोज दे रही थी गैर को देखा जब,
मन में आया चला जाऊं छोड़ ये दुनिया – शहर अब।।
हम अपने दर्द को दिल में छिपाकर बैठे थे,
कहते हैं लोग इश्क जन्नत है।
तो क्या अभी तक हम तवायफ के राह में,
अपना सर्वस्व लुटाकर बैठे थे।।

✍️ संजय सिंह राजपूत ✍️
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संजय सिंह राजपूत

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