कहानी

विदाई

आंगन में चारो ओर लाइटें लगा दी गई हैं। अब मंडप खड़ा करने की तैयारी चल रही थी जब चिंटू भागता हुआ आँगन में आकर खड़ा हो गया और दोनों हाथ कमर पर रखकर चिल्लाने लगा – “यहाँ उमा देवी कौन है? उमा देवी…उमा देवी….उमा देवी”। इतने में राकेश ने एक ज़ोर का चांटा उसकी खोपड़ी के पीछे जड़ दिया।

“नालायक! अपनी दादी का नाम इस तरह लेता है कोई”। बरामदे में भरी बाल्टी ले जा रही सपना को उसने कहा -“कहाँ से इतना नालायक बेटा तुमने पैदा कर दिया।”

“मुझे क्या पूछते हो। तुम जानो। बेटा तुम्हारा है।” राकेश ने फिर एक बार हाथ उठाया ही था कि चिंटू बोल उठा “मुझे क्या मालूम कि दादी का नाम दादी नहीं। कोई आया है। उमा देवी से मिलना है। हमारे घर में इतने लोग हैं। पता ही नहीं कौन-कौन है।”

“अम्मा से मिलने!”

“हां …वही तो मैं कह रहा हूँ। कोई सुन ही नहीं रहा।”

राकेश आँगन से ही ज़ोर से चीखा – “अम्मा… देख तो कोई है….तुम्हें पूछ रहा है”

उमा सर पर पल्ला रख कर रसोई से बाहर निकली।

सशंकित हृदय से पूछा” कौन है। क्यों पूछ रहा है।”

“पता नहीं। बैठक में है।”

उमा ईश्वर का स्मरण करते हुए बैठक की और बढ़ गई। मन ही मन कहती चली जा रही थी कि अब शादी में कोई अड़चन न आए भगवान। यहां तो रह-रह कर रिश्ते टूट जाते हैं। उमा ने लोगों को मण्डप तक से उठकर जाते देखा है। अड़ोस-पड़ोस में तो किस-किस बात पर शादियां नहीं टूटी। कहीं डिमांड पूरी नहीं हुई तो कहीं लड़का इंजीनियर की जगह मैकेनिक निकला। कहीँ लड़का ऐन मौके पर किसी के साथ भाग गया तो कहीं दुल्हन को कोई भगा ले गया। अरे पिछली गली के पांडे जी के घर से तो केवल इसलिए बारात लौट गई क्योंकि भेजे गए लड्डू ससुराल में पूरे नहीं पडे और बरात को पनीर की सब्जी कम पड़ गई तो बस नहीं करनी ऐसे कंजूस घर में शादी। अब लड़के वाले हैं चाहें जो कहें। भट्टा तो लड़कीवालों का बैठता है। यंहा भी रमा की शादी की पूरी तैयारी हो गई है। बहुत खर्चा न सही मगर जो भी थोडा बहुत हुआ है उस पर पानी नहीं फिरना चाहिए। लड़का बहुत अच्छा है। उमादेवी के पति भी कह के गए थे कि यह रिश्ता हाथ से जाना नहीं चाहिए वरना फिर इतना अच्छा लड़का ढूँढना…..। मगर इस वक़्त कौन हो सकता है। शादी वाली शाम। कहीं लड़के वालों की तरफ से कोई डाह रखनेवाला रिश्तेदार तो नहीं जो झूठ-सच की आग लगाकर ऐन मौके पर शादी तोड़ने के लिए आ गया हो। ये रमा के बापू भी अब तक नहीं आए वरना इन सब पचड़ों में मुझे नहीँ पड़ना पड़ता। भला बेटी की शादी में किसे छुट्टी नहीं दी जाती है।

इन्हीं सब ख्यालों में डूबती-उतराती उमा बैठक में पहुंची। अरे यह तो दुबे भाई साहेब हैं वो भी यूनिफॉर्म पहनकर। लेकिन रमा के बापू नहीं दिख रहे। हे भगवान अब यह न हो कि शंभू भाई साहब उनकी छुट्टी न मिलने की खबर लाए हों। भगवान कोई भी खबर हो मगर यह न हो कि उन्हें छुट्टी नहीं मिली। रमा की शादी तो उनका सपना ही है। पूरा होते नहीं देखेगें तो कितना बुरा होगा। उस पर मैं अकेले क्या-क्या संभालूँगी। लड़के वाले क्या सोचेंगे कि कैसा पिता है।

“नमस्ते”

“नमस्ते” शंभू भाई साहब का चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा नहीं लटका। चाहें जो भी हो। जितना नाटक कर लें। वो नहीं आए तो इन्हीं के ऊपर अपनी भड़ास निकालूँगी मगर निकालूँगी ज़रूर। छोडूँगी नहीं।

“नमस्ते भाई साहब!”

शंभू फटी-फटी आँखों से उमा को देखे जा रहा था। उमा भी सकपका गई। उसने सोचा कोई चाल नहीं चलने देगी और ताबड़-तोड तीर छोड़ने शुरू कर दिए।

“भाई साहब। अब आप मुँह लटकाकर उनका पक्ष मत लीजिएगा। मुझे खूब पता है कि आपको भेजकर वो मेरे गुस्से से बचना चाहते हैं। मगर यह कोई बात नहीं बनती है कि सारी जिन्दगी फौज़ को दे दी और फौज आपको अपनी बेटी के लिए एक दिन भी न दे। देखिए कितना काम पड़ा है। कैसे होगी शादी।”

शंभू ने लगभग रोते हुए कहा-“रोक दीजिए यह शादी भाभी जी। नहीं होगी यह शादी।”

उम्मा भौंचक्की सी शंभू को देखकर भोली-“हे प्रभु।”

“हां भाभीजी। वे शहीद हो गए।”

कुछ पलों के लिए उमा का दिमाग सुन्न हो गया। फिर आँखों से अनायास अनवरत धारा बहने लगी। उमा के आगे एक पूरा जन्म घूम सा गया। यकीन ही नहीं हो रहा था कि जो अब तक कहीं था अब कहीं नहीं है। इस पल इस घड़ी उमा को जिसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी उसका अस्तित्व खत्म हो चुका था।

उमा ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा-“कहाँ रखा है शरीर।”

“कुछ ही घंटों में पहुँचता होगा यहाँ….मैं जल्दी निकल आया आपको खबर करने।”

बैठक में निस्तब्धता छाई थी। बैठक के दरवाजे से बाहर आँगन में उमा की नज़रें थमीं थीं, मगर जाने किस दुनिया में थी वो अब।

आँगन में सभी मंडप को घेर कर खड़े थे और मंडप छवाया जा रहा था। कुछ लोगों ने छप्पर को हाथ लगाया था और बाकी लोग नज़रों से की योगदान दे रहे थे। अपलक ऐसे देख रहे थे जैसे पलक झपक लेने से छप्पर गिर जाएगा और सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। सबकी सांसे अटकी हुई थी। इतना सारा ध्यान पाकर छप्पर चढ़ाने वाले भी घबरा रहे थे कि कहीँ छप्पर सरक न जाए और उनकी इज़्ज़त भी। हुआ भी वही। राकेश का हाथ फिसला और सबके मुंह से हाय निकल पड़ी। पर उसने ऐन मौके पर कस के पकड़ लिया और पूरा छप्पर गिरने से बच गया। हाँ टेड़ा ज़रूर हो गया।

जहां आँगन में इतनी हुल्लड़ मची हुई थी वहीँ इस घर का बैठक उपेक्षित सा एक कोने में पड़ा था जहाँ अब भी निस्तब्धता छाई थी। उमा अब भी आँगन में कुछ देखकर भी नहीं देख रही थी। मगर जब रमेश के हाथ से छप्पर छूटा था तब अन्य सुधि दर्शकों की हाय सुन उमा का ध्यान भी आँगन की गतिविधियों पर जा टिका। एक लंबी नींद; शायद एक जन्म जैसी लंबी नींद से लगभग जागते हुए उमा ने कहा।

“नहीं भाई साहब। उनका शरीर अभी नहीं लाईये।”

शंभू चौंके, “यह क्या कह रहीं है भाभी जी।”

“हाँ भाई साहब। ये शादी हो जाने दीजिए। कल सुबह-सुबह रमा की डोली उठ जाएगी तब तक के लिए रोक लीजिए।”

“यह शादी कैसे हो सकती है”

“बस जैसे हो रही है हो जाने दीजिए। अब तो ऐसे-जैसे-तैसे इस शादी को निपटाना ही है।”

“अरे भाभी। उनका पार्थिव शरीर यहां पहुंचता ही होगा। ऐसे में शादी कैसे होगी।”

“उनके जन्म भर का सपना थी ये शादी। ये शादी उनके जन्म भर की कमाई है भाई साहब। अगर हो जाएगी तो उनकी आत्मा भी चैन से यह शरीर छोड़ सकेगी। वैसे भी उन्हें यह रिश्ता बहुत पसंद था। लड़का ऐसा हीरा है कि चूक गए तो फिर मिलना मुश्किल।”

“भाभी जी। अपनी रमा को तो कई ऐसे हीरे मिल जाएंगे।”

“नहीं भाई साहब। हमने कई लड़के देखे। आजकल सब लड़के बड़े शिष्ट, ईमानदार और आदर्शवादी हैं। मगर तभी तक हैं जब तक उनकी शादी की बात न हो। बाकी तो वो अपनी माता-पिता की पसंद का एक कपड़ा भी न पहनें, दुनिया में क्रान्ति ला दें, मगर जब बात शादी की आती है तो माँ-बाप की डिमांड्स के आगे सब चुप्पी साध लेते हैं। सारी भगत सिंहगीरी भूल जाती है। और क्यों न हो। बाहर तो किसी का एक रुपया लेते शर्म आती है। मगर यहां का तो रिवाज़ बन पड़ा है कि लड़की से शादी करना मतलब उसके बाप-भाई की सम्पति पर मालिकाना हक जमा लेना होता है। यह भी नहीं सोचते कि फौज का एक मामूली जवान कहाँ से इतना लाएगा। मगर नहीं इन्हें तो जो पड़ोसी की शादी में मिला है उससे ज़्यादा ही चाहिए। एक पैसा कम हुआ तो नाक कट जाएगी। इन्ही रिवाज़ों से जूझकर तो राकेश सपना को उसके घर से ही उठा लाया। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।”

“लेकिन भाभी जी मैं कैसे रोकूँ? शरीर तो कभी भी शहर में पहुंचता होगा।”

“कुछ भी कीजिए भाईसाहब। कुछ घण्टो से ही रमा की ज़िन्दगी बन या बिगड़ सकती है। आप ही बताओ ऐसा लड़का कहाँ मिलेगा जो साफ़-साफ कहता हो कि रमा को केवल और केवल शादी के जोड़े में यहाँ से ले जाएगा। अगर उसके साथ एक रुमाल भी आया तो उसके पति होने पर धिक्कार है। कहता है कि अगर अपनी पत्नी को पहनाने-खिलाने-ओढ़ाने का बूता भी नहीं तो पति किस काम। कैसा जीवनसाथी अगर आपसे मांग कर ही मुझे उसका जीवन चलाना पड़े। और तो और कहता है शादी उसकी है तो आधा खर्चा भी वही उठाएगा। इसीलिए हम कम से कम खर्चे में शादी कर रहे हैं ताकि संदीप जी पर खर्चा कम पड़े। बड़े मन से मैं कई सालों से रमा के लिए कपड़े और गहने इकट्ठे कर रही थी। सब बेकार।”

उमा ने गहरी सांस लेते हुए आगे कहा, “अब सब आपके हाथ में है भाई साहब। रमा आपकी भी बेटी है। उसकी ज़िन्दगी बनानेवाला तो चल दिया अब आप ही कुछ कर सकते हैं तो कर सकते हैं।”

शंभू इस उत्तरदायित्व के भार से सर झुकाए बैठे थे। कमरे में धूप का एक टुकड़ा जमीन पर पसरा हुआ था। उसी धूप के टुकड़े पर एक छाया आ कर ठहर गई। शंभू ने नज़र उठाकर देखा तो पीली-पीली सी एक लड़की हाथों में आधी गीली आधी सूखी मेंहदी लगाए खड़ी थी जिसने उसे देखना भी ज़रूरी नहीं समझा और जो सीधे जाकर उमा से भिड़ गई।

“माँ! क्या करती हो? मेरा झुमका उठा के कहाँ रख दिया। मुझे मिल ही नहीं रहा। चलो अब ढूंढ के दो वरना….।”

“इनके पैर छूओ रमू।”

रमा सकपका गई कि कहीं वर पक्ष से तो कोई नहीं है। हल्दी से पीले देह को अपने पीले दुप्पटे से छुपाती हुई झुकी।

“ये शंभू चाचा हैं। तुम्हारे पापा के साथ ही भर्ती हुए थे। बचपन में जब पापा गुस्सा करते थे; तू इनके घर भाग जाया करती थी।”

हर कोई आज राम नारायण के घर पर न होने का गुस्सा शंभू पर ही उतार रहा था।

“चचा जी। आप पापा को साथ क्यूँ नहीं लाए। ऐसा कहीं होता है क्या कि कोई अपनी बेटी की शादी में भी मौजूद न रहे। आप बस उनसे कह दीजिएगा कि मैं उनसे बहुत नाराज़ हूँ और उनसे कभी बात नहीं करूंगी। कभी मतलब कभी नहीं। शादी के बाद भी नहीं। बूढ़ी हो जाउंगी तब भी नहीं।”

शंभू और उमा ने एक दूसरे को अर्थपूर्ण निगाहों से देखा। उमा की आँखों से धार निकल पड़ी। शंभू ने रमा का ध्यान बंटाने के लिए कहा “मैं भी तुमसे बात नहीं करूँगा। तुम्हारी शादी में इतनी दूर से आया हूँ और शादी के लड्डू तो छोड़ो किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा।”

“हे माँ। सच्ची। मैं अभी लाई।”

रमा जा चुकी थी और शंभू उमा को समझा रहे थे “भाभी आप ही टूट जाओगी तो कैसे चलेगा। इस तरह अगर आपकी आंसुओं की धार निकलती रही तो हो गया बस। हो चुकी रमा की शादी और हो चुकी विदाई।”

उमा और ज़ोर से फफक के रो पड़ी।

शम्भू ने तेज़ आवाज़ में चीखते हुए कहा -“भाभी”

फिर खीझ बरकरार रखते हुए मगर अपनी आवाज़ को काबू करते हुए कहा “हम इस विदाई के लिए उस विदाई को रोक रहे हैं। बल्कि इसकी कोई गारंटी भी मैं नहीं दे सकता कि उस विदाई को ज्यादा देर थामें रख पाउँगा। फ़ौज में कौन किसकी सुनता है और हम जैसे छोटे रैंक वाले की तो सुन चुके। मगर फिर भी मैं भरसक प्रयत्न करूंगा। लेकिन मेरी सारी मेहनत और राम की तो पूरी ज़िन्दगी की मेहनत ख़ाक में मिल जाएगी भाभी अगर आपने इन आंसुओं को नहीं रोका।”

उमा को अभी-अभी एहसास हुआ कि जो अब तक उमा की प्राथमिकता थी वो अचानक शंभू की हो गई है। शंभू अब परिस्थितियों को उससे भी ज्यादा समझने लगे हैं और अब बात को संभाल लेंगे। शंभू को खुद पर भरोसा हो न हो उमा को भरोसा हो चला था कि शंभू शरीर को विदाई से पहले नहीं पहुंचने देंगे।

उमा ने आँसू पोंछते हुए कहा “ठीक है भैया। आप उधर संभालिए में यहां कोशिश करती हूँ।”

“ठीक है भाभी जी। अब मैं चलता हूँ वरना देर हो गई तो शरीर को यहां पहुंचने से पहले नहीं रोक पाउँगा। मुझे जल्द से जल्द वहां पहुंचना होगा।”

“जी नमस्ते”

“नमस्ते”

बाहरी द्वार की ओर से शंभू निकले और आँगन की ओर से रमा अंदर आ कर ठिठक गई।

“चचा कहाँ गए?”

“गए”

“ऐसे, कैसे; भाभी चाय-पानी ला रही हैं।”

“भाभी?”

“हां। मेरे हाथ में मेहंदी लगी है न।”

“ओह! अच्छा।”

“लेकिन चचा कहाँ गए?”

“उन्हें कुछ बहुत ही ज़रूरी काम था।”

“ये फ़ौज वाले सारे हमेशा घोड़े पर सवार क्यों रहते हैं। पापा से पूछना पड़ेगा।”

“अच्छा चल अब सारी तैयारी बाकी है। तुझे झुमके मिले।”

“नहीं”

“चल। उधर ही चल। ढूंढ के देती हूँ।”

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घर की देहरी खचाखच भरी थी। अड़ोस-पड़ोस की छतों पर भी लोग जमा थे। सामने कुँए की मुंडेर पर खड़े लोग भी काम छोड़कर बस खड़े ही खड़े देख रहे थे। विदाई का यह दृशय वे सैकडों बार देख चुके थे। मगर फिर भी कोई मौका नहीं चूकते। रमा उमा से लिपटकर ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी। उमा की आँखें नम थी और सभी की भी, छतों और मुंडेर पर खडे लोगों की भी। उमा मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि यह विदाई अच्छे से निपट जाए। रमा और जितने लोगों से मिलकर जितना ज्यादा समय बिता रही थी उमा की बेचैनी उतनी बढती जा रही थी। यहाँ तक कि जब कांति बुआ उसे छोड़ ही नहीं रही थीं तो उसने बीच में जाकर रमा को अलग किया और उसके पीछे-पीछे लगी रही ताकि वो कहीं भी ज्यादा समय न गंवाने पाए। रमा के जाने से पहले ही वह दूर जाती गाडियों को देख रही थी कि कहीं कोई मिलिट्री की गाड़ी न दिख जाए, कहीं देर न हो जाए। विदाई के शोक से भारी इस सभा को वह जल्द से जल्द निपटाने का प्रयास कर रही थी मगर जहाँ सबकुछ उदासी के मोड में चल रहा था वहां जल्दी करती भी तो कैसे।

जब तक बारात दूर न निकल गई वह घबराती रही। धीरे-धीरे लोग तितर-बितर होने लगे थे। रिश्तेदारों की एक टोली तो घर के भीतर जाकर अपना सामान समेट रही थी जिन्हें अभी ही निकलना था। छतों पर से लोग हट चुके थे और मुंडेर पर व्यस्तता छाई थी। कुछ समय पहले तक खचाखच सी देहरी पर अब केवल उमा अकेली खड़ी क्षितिज को निहार रही थी। सबको तो यही लग रहा था कि वह बेटी के जाने का शोक मना रही है मगर यह केवल वही जानती थी कि उसका शोक तो अभी शुरू ही हुआ है, खत्म नहीं।

मिलिट्री के एक के पीछे एक तीन हरे-हरे ट्रकों को देखकर उमा धम्म से ज़मीन पर गिर पड़ी और इससे पहले के घर के भीतर के कुछ लोग और घर के बाहर के कुछ लोग कुछ समझ पाते वह दहाड़े मार-मार कर रोने लगी। दोनों ओर के लोगों ने उसे संभालने की बहुत चेष्टा की मगर धरा से उसका ममत्व नहीं तोड़ पाए। कोई राकेश को भी बुलाया लाया। कोई समझ ही नहीं पा रहा था कि मिलिट्री के ट्रकों को देख भला रोनेवाली कौन सी बात हो गई। मगर जब कुछ ही देर बाद चार जवानों ने एक ताबूत लाकर देहली के सामने रख दिया तो सब स्वत: ही स्पष्ट होता चला गया।

सही ही कहा गया है कि जीवन एक रंगमंच है और अगर इस रंगमंच पर अलग-अलग भूमिकाएं निभाने के लिए कोई नेशनल अवार्ड होता तो उमा को वह ज़रूर मिलता। कुछ ही देर पहले तक जहाँ वह दुल्हन की माँ बनकर शादी की सारी देख-रेख बखूबी कर रही थी वहीं आज विधवा बनकर बदहवास सी उस शरीर के पास अपना प्राणहीन शरीर लिए पड़ी हुई थी। अर्थी उठाने वाले को भी भ्रम हो जाए कि किसे ले जाना है और किसे छोड़ना। अभी थोड़ी ही देर पहले जहाँ थके-मांदे लोग रमा की विदाई के बाद शांति तलाश रहे थे वे फिर रोने- सिसकने की आवाज़ों से खिंचे चले आए। घर की देहरी फिर से खचाखच भर गई थी। अड़ोस-पड़ोस की छतों पर फिर से लोग जमा थे। सामने कुँए की मुंडेर पर खड़े लोग भी काम छोड़कर बस खड़े ही खड़े देख रहे थे।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com