लघुकथा

जीवंतता

स्व लेखन की पुस्तक के लोकार्पण होने पर मेरी प्रसन्नता इंद्रधनुषी हो रही थी..। सोच बनी कि घनिष्ठ मित्रों को भी एक-एक प्रति भेंट करनी चाहिए। मित्रों की सूची बनाने के क्रम में बिगत सात वर्षों से फेसबुक पर बनी मित्र जो स्थानीय ही रहती थी, मिलकर उसे पुस्तक भेंट करने के विचार से उससे मिलने चली गयी।

उससे बातचीत करने पर पता चला यह वही है जो कक्षा अष्टम में मेरे साथ ही पढ़ती थी और अब वह एक विद्यालय में शिक्षिका है। उसे पुस्तक भेंट करते हुए मुझे जितनी प्रसन्नता हुई, उससे कई गुणा ज्यादा वह प्रसन्न हुई। किन्तु बातचीत में मुझे लगा कि वह स्वस्थ्य नहीं है। मैंने पूछ ही लिया, “क्या बात है, तुम स्वस्थ्य नहीं लग रही हो ?”

“हाँ! अरे कोई विशेष बात नहीं है, बस साल भर से कैंसर से युद्ध चल रहा है…।”

“क्या? कैंसर से?” मुझे बहुत डर लगा… और भावुकता में आँखें बरसने लगी। फिर भी मैंने उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “चिंता की कोई बात नहीं तुम जल्दी ठीक हो जाओगी…।”

“देखो संगी! कैंसर सेल्स के जाल से घिर चुकी हूँ…! जान चुकी हूँ कि मेरे पास छ:-सात माह से ज्यादा समय नहीं है…। परन्तु मुझे कोई चिंता नहीं है।”

उसका साहस देखकर मैं स्तब्ध रह गई। मुझे परेशान देखकर वह बोली, “सुनो संगी! मैंने जो कुछ सोच रखा है , वो सारे कार्य मैं इन छ: माह में पूरा कर दूँगी…। कितने महान लोग विवेकानंद , भारतेंदु आदि जैसे पैंतीस साल में ही अपने-अपने काम से नाम कर चले गये… मैं भी अपने काम से अपना पहचान लिख जाना चाहती हूँ…।”

“जिन्दगी लम्बी नहीं , बड़ी चाहिए” की सोच मेरी आँखें गीली कर रही थी…।

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ