गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

नाकामियों के डर से हम रास्ते बदलते रहे।

लोग हमें रोज नये मिले और हमें छलते रहे।।

भरोसे का न था कोई हमसफर हमारा यारों।
हम हर शै पर अक्सर ऐतबार करते रहे।।

मेरी तन्हा सी जिन्दगी का फायदा था जिन्हें।
वो हमारी नाजो अदा पर आहें भरते रहे।।

आंख तो बहती रही शामो सहर हमारी भी।
हम फिर भी खताओं को माफ करते रहे।।

दर्द है ये लाइलाज आज जाना हमने रहबर।
तीर निकल गया हाथ से हम हाथ मलते रहे।।

खाई है इक तरफ इक तरफ दरिया तूफानी।
मौत की आरजू में मगर हम आगे बढ़ते रहे।।

— प्रीती श्रीवास्तव

प्रीती श्रीवास्तव

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