लघुकथा

पांच झरोखे

आज बहुत समय बाद वह आराम से सोई है. उसका मन शांत व मस्तिष्क तनाव रहित हो गए थे. निद्रा ने देह के साथ-साथ मन और मस्तिष्क की थकान मिटा दी थी. यह सब कैसे हो गया! वह खुद अचंभित थी.
ऐसा नहीं था कि इससे पहले वह किसी मनोचिकित्सक के पास नहीं गई थी. एक छोड़ उसने अनेक मनोचिकित्सकों के चक्कर लगाए थे, पर उनमें और इस मनोचिकित्सक में एक अंतर था. बाकी सब उसके अभिभावकों से असलियत जानने की कोशिश करते थे, पर इसने इससे अकेले में ही बात करना उचित समझा. शायद उसका तरीका ही यही हो. उसने भी किसी अन्य के सामने अपनी व्यथा को मुखर नहीं किया था, इस बार कोई चारा न था, बोलना ही पड़ा.
”डॉक्टर साहब, आप देख ही रहे हैं, कि मैं अभी भी सूरत से मनभावन लगती हूं, प्रतिभा की भी मुझमें कमी नहीं थी. बचपन में मेरी इसी खूबसूरती और प्रतिभा पर वहशियत का साया पड़ गया था, इसलिए कभी-कभी मुझे उस समय की चीखें बेबस कर देती हैं.” सामने पड़े पानी के गिलास से एक घूंट पानी पीकर वह तनिक संयत हुई.
”उससे पहले मुझे घर में बहुत प्यार मिलता था, लेकिन इस हादसे के बाद मैं चिड़चिड़ी हो गई और प्यार को तरसती रह गई. अब मैं 18 साल की होकर भी गुड़ियों में प्यार ढूंढती हूं.” वह डॉक्टर साहब की प्रतिक्रिया देखना चाह रही थी, लेकिन वे निर्लिप्त-से दिखे.
”स्कूल में मेरी प्रतिभा को सराहने वाले कम थे, ईर्ष्या करने वाले अधिक, यह भी मुझे नागवार लगता था.” उसने एक घूंट पानी और पिया.
”ममा अपना बिजनेस करती हैं. उन्होंने अपने नाम पर एक दुकान किराए पर ली, उसमें एक सहेली को भी सहभागी बनाया. सहेली ने उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ लिया और ममा को दुकान छोड़नी पड़ी. मन करता है, उसको जकड़कर झिंझोड़ दूं.” उसके बोलने में जकड़कर झिंझोड़ने की तल्खी स्पष्ट थी. उसने गहरी सांस ली और चुप हो गई.
”और कुछ?” डॉक्टर साहब ने पूछा.
”बस फिलहाल इतना ही याद आ रहा है, इससे याद आया कि मैं कुछ-कुछ भूल जाती हूं, फिर अचानक याद आ जाता है.”
”देखिए, आपके मस्तिष्क में पांच मस्तिष्क हैं.” डॉक्टर साहब ने विश्वासपूर्वक कहा.
”पांच मस्तिष्क?” उसने कहा, ”लेकिन मेरे विचार से तो हर व्यक्ति बेटा, बाप, भाई, पति, मित्र आदि होता है, तो क्या वो अधिक मस्तिष्क वाला होता है?”
”नहीं, ये तो उसके रूप हैं. किसी में अनेक तरह की प्रतिभा होती है, उसे बहुआयामी कहते हैं. आपकी बात कुछ अलग है, जिस समय जिस मस्तिष्क का वर्चस्व होता है, आप वैसा व्यवहार करती हैं.”
”इसका कोई इलाज?”
”इलाज आप खुद हैं. आप अपने आप में रहिए, खुद को सहलाइए, खुद को बहलाइए, खुद को अपना साथी बनाइए, सब आपके साथी बन जाएंगे.”
”और नींद?”
”नींद भी आपकी सहचरी बन जाएगी. बहुकेंद्रित न रहकर स्वकेंद्रित रहिए.”
”फिर कब आऊं?”
”मेरे हिसाब से तो आपको आने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.”
डॉक्टर साहब के पास दुबारा न जाने का संकल्प लेकर ही उसने चार झरोखों को विदाई दी थी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “पांच झरोखे

  • लीला तिवानी

    जब किसी इंसान का व्यक्तित्व बंटा हुआ होता है, तो वह विक्षिप्त-विस्मृत-सा रहता है. ऐसे में न वह प्यार दे सकता है, न ले सकता है और प्यार के लिए इधर-उधर ताकता है, जब कि वह खुद प्यार का सागर होता है. जब वह स्वकेंद्रित हो जाता है, तो प्यार उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता है. उसके बाद उसे किसी मनोचिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता नहीं होती. उसका आत्मविश्वास ही उसका चैन हो जाता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , लघु कथा बहुत अछि लगी . डीपरेशन अज कल आम समस्य है . इस के कारण बहुत होते हैं और इन कारणों के बोझ तल्ले इंसान हार जाता है और फिर डाक्टर की गोलीआं शुरू हो जाती हैं . कुलवंत को भी यह समस्य आई थी .दो साल तक डाक्टरों के चक्कर में फंसे रहे .फिर मैंने ही उसे इस मुसीबत से निकला और यह लंबी कहानी है की कैसे . बस मेरी मिहनत रंग लाइ और एक साल में उस ने धीरे धीरे सभ दुआईआन छोड़ दीं और इस के बाद दुबारा यह मुसीबत कभी नहीं आई .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. डिप्रेशन आजकल आम समस्या है. इसके कारण बहुत होते हैं और इन कारणों के बोझ तले इंसान हार जाता है. हमें खूब अच्छी तरह याद है, कि आपने बहुत शोध करके कुलवंत जी की दवाइयां छुड़वा दी थीं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

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