लघुकथा

बुद्धू कौन

” बेटा , कथरीसाज आया है । पुरानी साड़ियाँ जो निकाली थीं लेकर आना जरा।” मेरी माँ बुला रहीं थी । ना ना ना , मुझे नही मेरी श्रीमति जी को। जी हाँ , वो उसे भी बेटा कहकर हिं बुलाती है। बेटे से ज्यादा प्यार है इसलिए या बहू से भी बेटे जितना प्यार है इसलिए , ये पता नहीं।

खैर कपड़े साड़ियाँ आ गई । कथरीसाज को हिदायतें , समझाइशें , शिकायतें सुनाई जाने लगीं। सिलाई तीन अंगुल से ज्यादा दुरी पर ना हो। सलवट ना आने पाए। गाढ़े रंग वाली साड़ियाँ ऊपर रखना , कम गंदे दिखते हैं। इस साड़ी की बॉर्डर काटकर कथरी की बॉर्डर बना देना । तरह तरह की साड़ियाँ , तरह तरह की समझाइश और बीच बीच में साड़ियों की कहानियाँ भी। ये बुआ ने दी थी । इस साड़ी को फलाने फेरी वाले से खरीदी आदि आदि। पर एक साड़ी न दिखी।

” बेटा , वो पीली वाली साड़ी नही दिख रही। वो भी तो निकाली थी न ?”

” माँ जी , वो तो अभी नई हिं है। काम आ जाएगी इसलिए हटा ली।”

“नही नही बेटा , ले आओ उसे।” बहू का बिल्कुल मन नही था पर क्या करे, दे दिया। बुढ़ा कथरीसाज दो दिन बाद का समय देकर रवाना हुआ।

बहू ने कहा – ” माँ जी , वो साड़ी अभी नई हिं थी। लेन देन में काम आ जाती ।आप देखना ये उस साड़ी को निकाल लेगा । तीन कथरी के लिए ऐसे भी दस साड़ियाँ ज्यादा हैं। वो आपको बुद्धू बना रहा है । आपकी भलमनसाहत से फायदा उठाता है और आप समझतीं नहीं।

माँ बड़े आराम से बोली – ” बेटा , मैं चाहती भी हूँ वो उस साड़ी को निकाल ले । ”

बहू दंग – ” ये क्या बात हुई माँ । तो उसे ऐसे बोलकर दे देना था।”

“नहीं बेटा , जब वो उसे निकालेगा, उसकी जगह दुसरी साड़ी का जुगाड़ बैठाएगा तब वो साड़ी उसे अपनी कमाई हुई लगेगी, उसका सुख , मिली हुई साड़ी से बढ़कर है।”

बहू ने कहा – ” माँ , आपके इसी भोलेपन के कारण आप बुद्धू बन जाते हो।”

अबकी बार माँ हँसी और बहू से पुछा – ” बेटा पिछले महीने जब मॉल गए थे तो वो मकई का लावा कितने में लिया था ?”

” माँ जी , सत्तर रुपए का ,पर उस ‘पॉपकॉर्न’ का अभी क्या लेना देना?”

माँ बोली – ” बताती हूँ । बेटा वो लावा बमुश्किल दस रुपए का रहा होगा। पर तुमने दिए , सत्तर रुपए। सब जानकर भी। जब तुम एक अजनबी लखपति की आमदनी के लिए फालतू पैसे खर्च कर सकती हो तो अगर मैंने अपने हिं गाँव के गरीब पर कुछ ज्यादा खर्च कर दिए तो क्या हुआ अब बताओ ” बुद्धू कौन “.

समर नाथ मिश्र