लघुकथा

पक्का इरादा

आज सुबह सैर करते समय एक वृद्ध सज्जन को पगडंडी पर सैर करते देखा. उनको अकेले सैर करते देखकर मुझे राजेश अंकल की स्मृति हो आई.
राजेश अंकल भी अकेले सैर करते थे. एक दिन पार्क में बैठे मिल गए थे. मैं भी उनके साथ बैंच पर बैठ गई. बातों-बातों में मैंने पूछा- ”अंकल जी, आप अकेले सैर करते हैं, आपको अकेलापन नहीं लगता?”
”अकेलापन? अकेलापन क्या होता है, मैंने तो कभी महसूस ही नहीं किया?” मुझे हैरान करते हुए अंकल ने कहा.
”मैं समझी नहीं!” मेरी जिज्ञासा थी.
”एक तो हम अकेले कभी होते ही नहीं, सभी धर्मों में यह बताया गया है, कि हम कहीं भी हों, परमात्मा हमारे साथ रहते हैं. फिर ऑस्ट्रेलिया में तो जिसका कोई नहीं, सरकार उसके साथ होती है. मुझे तो इसी शहर में रहने वाले बहू-बेटे-पोतों का पूरा साथ है, हालांकि मैं अपनी इच्छा से सीनियर सिटिजन होम में रहता हूं.”
”वो क्यों, अंकल जी?”
”वहां सब हमारे हम उम्र लोग रहते हैं, अच्छी कंपनी मिल जाती है. बहुत बढ़िया लाइब्रेरी है, गेम्स रूम है. हम साथ मिलकर लाइब्रेरी जाते हैं, गेम्स खेलते हैं. सब जगह हमारे लिए चाय-स्नैक्स का इंतजाम होता है. जो घर में खाना न बनाना चाहें, उनके लिए मैस का प्रबंध है. सबके स्वास्थ्य की नियमित देखभाल की जाती है. सप्ताह में एक बार हमें मार्केट ले जाया जाता है. कैसीनो की कर्टसी बस को जब बुलाओ, ले जाती है और छोड़ भी जाती है. सीनियर सिटिजन पास में हम कहीं भी बस-लोकल ट्रेन-फेरी आदि सभी में मामूली किराये पर घूम सकते हैं. सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं.”
”आपके बहू-बेटे-पोतों ने आपकी बात को मान लिया?” मेरी अगली जिज्ञासा थी.
”आसानी से कहां माने थे, बड़ी मुश्किल से मनाना पड़ा था, फिर वो तो हर पल मेरे साथ रहते हैं!”
”मतलब!” मेरा हैरान होना स्वाभाविक था.
”ये छड़ी देखो, कितनी सुंदर है! ये मेरा बेटा पेरिस से लाया है. यह अंगूठी मेरी बहू दुबई से लाई है. बच्चे न्यूयार्क गए थे तो बड़ा पोता मेरे लिए यह टी शर्ट लाया है, छोटा कैसे पीछे रहता! वह यह जीन लाया है. मेरी बहू का मोबाइल मेरे पल-पल की खबर वैसे ही रखता है, जैसे पोतों की रखता है, फिर भला अकेलेपन को रहने की जगह कहां मिलेगी?” इसके आगे पूछने को मेरे पास कुछ नहीं था.
”वीक एंड में तो मैं बच्चों के साथ ही रहता हूं. उस दिन बेटा और मैं बिलियर्ड खेलते हैं, बच्चों के साथ स्विमिंग एंजॉय करता हूं, उन दिनों मेरी पसंद का खाना बनता है. हर दिन मौजां-ही-मौजां, नो अकेलापन.” अंकल ने कहा.
मन की मौज का यह सबक मेरे लिए अनोखा था, जिसको महफ़िल में भी तनहाई का अहसास होता था, मैंने भी तनहाई को ही शहनाई बना लेने का पक्का इरादा कर लिया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “पक्का इरादा

  • लीला तिवानी

    अकेलापन मन की भावना है. मन की मौज का पक्का इरादा हो तो अकेलापन होता ही नहीं हैं. अपने को अकेला मानने वाले को महफिल में भी तनहाई का अहसास होता है, मन की मौज वाले को तनहाई को ही शहनाई बना लेने की कला आ जाती है, तब हर दिन मौजां-ही-मौजां होती हैं.

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