धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

प्रलय होने पर जीव का क्या होता है?

ओ३म्

मनुष्य एवं प्राणी जगत में जीव का माता-पिता तथा कार्य प्रकृति से संयोग होकर मनुष्य का एवं प्राणियों का जन्म होता है। इनकों जन्म देने वाला व बनाने वाला परमेश्वर है। माता-पिता ईश्वर के इस कार्य में सहायक होते हैं। वह ईश्वर पर इस विषय में कोई शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि उन सभी माता-पिताओं को भी परमात्मा ने इसी प्रक्रिया से संसार में उत्पन्न किया है। माता-पिता बनने पर ईश्वर की व्यवस्था से सभी युवा दम्पत्तियों को ऐसा सुख व अनुभूति मिलती है जिसे वह अन्य किसी प्रकार से भी प्राप्त व अनुभव नहीं कर सकते। जिन व्यक्तियों को सन्तान का सुख प्राप्त नहीं होता, वह ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें सन्तान का सुख मिले और इसके बदले में वह अपनी लाखों व करोड़ों की सम्पत्ति छोड़ने के लिये भी तत्पर रहते हैं। यह स्थिति ऐसी है कि इसमें युवा दम्पत्ति स्वयं ही माता-पिता तो बनना चाहते हैं परन्तु ईश्वर की कृपा व सहायता के बन नहीं सकते। इससे यह भी पता चलता है कि सन्तान को माता-पिता जन्म तो देते हैं परन्तु वह माता के शरीर में परमात्मा व उसके नियमों द्वारा बनती व अस्तित्व में आती है। शिशु के शरीर में जो आत्मा होती है वह शरीर में आने से पूर्व कहीं किसी अन्य स्थान पर सशरीर होते हुए वृद्धावस्था, रोग व किसी दुर्घटना आदि में मृत्यु को प्राप्त होती है और परमात्मा उसके कर्मों के अनुसार उसे जन्म देने के लिये वर्तमान के माता-पिताओं से जन्म देते हैं जिससे वह अपने पूर्वजन्म व उससे भी पूर्व के जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के सुख व दुःखरूपी फलों का भोग कर सके।

हमारी सृष्टि की आयु, इसका अस्तित्व वा जीवन कुल 4.32 अरब वर्षों का होता है। इस अवधि की समाप्ति के बाद इसकी प्रलय हो जाती है और प्रलय अवस्था का काल भी इतना ही होता है। प्रलय होने पर सृष्टि नष्ट होकर परमाणुरूप वा अपने मूल कारण सत्व, रज व तमोगुणों की साम्यावस्था को प्राप्त हो जाती है। यह अवस्था को ही प्रकृति कहा जाता है। यही अनादि तथा नित्य प्रकृति है जिसकी ईश्वर व जीवात्मा से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। इस प्रलय अवस्था में जीवों के जन्म मृत्यु की प्रक्रिया भी बाधित हो जाती है क्योंकि जन्म के लिये सृष्टि का होना आवश्यक है। इस प्रलय अवस्था में हमारे कुछ बन्धुओं को यह शंका हो सकती है कि इस अवस्था में जीवात्मा का अस्तित्व रहता है नहीं और यदि होता है तो जीवात्मा कहां रहता है? इसका उत्तर भी हमें ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़ने, उनके विचारों पर ध्यान देने व चिन्तन करने से मिल जाता है। वैदिक दर्शन ज्ञान के अनुसार संसार में तीन सत्तायें अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर है। इनका कभी नाश नहीं होता। इस कारण यह तीनों प्रलय होने पर भी अपने अस्तित्व में विद्यमान रहती है। आत्मा अविनाशी एवं अमर है। यह प्रलय अवस्था में रहती है तो कहां रहती है? इसका उत्तर भी हमें ऋषि दयानन्द के लिखित साहित्य में उपलब्ध होता है। ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि नाम से एक पुस्तक लिखी है जिसका प्रथम यज्ञ ब्रह्म यज्ञ वा सन्ध्या है। सन्ध्या में ऋषि दयानन्द ने तीन अघमर्षण मन्त्र दिये हैं। यह मन्त्र सभी आर्यबन्धु जानते हैं। इनका अर्थ करते हुए ऋषि ने लिखा है कि सब जगत् का धारण और पोषण करने वाला और सबको वश में करने वाला परमेश्वर जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में उसने जगत् की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं। जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी पृथिवी वा भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से वेद-मंत्र में ‘यथापूर्वम-कल्पयत्’, अर्थात् जैसा पूर्व बनाया था वैसा ही अब बनाया है, इस पद (यथापूर्वम-कल्पयत्) का ग्रहण किया है।

इस प्रकरण में ऋषि दयानन्द जी ने लिखा है ‘‘जब जब (प्रलय के बाद) विद्यमान सृष्टि होती है, उसके (सृष्टि रचना से) पूर्व (प्रलय अवस्था में) सब आकाश अन्धकाररूप रहता है और उसी (प्रलय अवस्था के) अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ (ईश्वर प्रकृति) और सब जीव ढके हुए रहते हैं। उसी का नाम महारात्रि है।” ऋषि दयानन्द जी ने यहां स्पष्ट लिखा है प्रलय अवस्था में जब जगत् के पदार्थ ईश्वर, जीव तथा प्रकृति अन्धकार में ढके हुए रहते हैं। इसका अर्थ है कि इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है परन्तु यह क्रियाशील नहीं होते। यह अवस्था रात्रि अवस्था के समान होती है। रात्रि अवस्था में हमारा शरीर विद्यमान रहता है परन्तु यह जाग्रत अवस्था के समान कार्य नहीं करता। ऐसा कुछ अभिप्राय हमें यहां ऋषि के शब्दों का प्रतीत होता है। इससे हमारे उन बन्धुओं को, जो यह जानना चाहते हैं कि प्रलय अवस्था में जीव कहां रहते हैं, कहां चले जाते हैं, उनका अस्तित्व होता है या नहीं, इसका उत्तर व समाधान मिल जाता है। समाधान यही है कि प्रलय अवस्था में जीवात्मा का अस्तित्व रहता है और वह प्रलय के अन्धकार से ढके हुए रहते हैं तथा उस स्थिति में जीवात्मा का जन्म मरण का चक्र अवरुद्ध बन्द रहता है।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की अवस्था को ऋग्वेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीयोपनिषद् के 5 मन्त्रों से स्पष्ट किया है और इसके बाद सभी शंकाओं व प्रश्नों का समाधान भी किया है। हम यहां इन पांच मन्त्रों के ऋषि दयानन्द के किये हुए अर्थ भी प्रस्तुत कर रहे हैं। (प्रथम) हे मनुष्य! जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। इस को तू जान और दूसरे किसी को सृष्टिकर्ता मत मान।। (द्वितीय) यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत्त, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से इसे कारणरुप से कार्यरूप कर दिया।। (तृतीय) हे मनुष्यों! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ है और होगा, उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें।। (चतुर्थ) हे मनुष्यों! जो सब में पूर्ण पुरुष है, जो नाश रहित कारण है और जीव का स्वामी है तथा जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् केा बनाने वाला है।। (पंचम) जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं, जिससे जीते और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म (ईश्वर वा परमेश्वर) है। उसे जानने की इच्छा करो।।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय का विस्तार से वर्णन किया है। यह वर्णन सभी जिज्ञासु पाठकों के लिये पठनीय है। इसको वहीं से पढ़ना चाहिये। ऐसा वर्णन अन्यत्र सुलभ नहीं होता। यह वर्णन गागर में सागर है जिसमें सृष्टि की रचना का विज्ञान पक्ष भी निहित है। हम विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं। हमें यह समस्त वर्णन विज्ञान सम्मत लगता है। हमें यह देखकर दुःख भी होता है कि हमारे वैज्ञानिकों ने इस वर्णन को पढ़ा व समझा नहीं है। यदि वह इसे व हमारे वैशेषिक व सांख्य आदि दर्शन का अध्ययन कर लेते तो उन्हें इससे लाभ होता। सम्भव था कि उनमें जो नास्तिकता के विचार पाये जाते हैं, वह दूर हो जाते। हमारी यह सृष्टि निमित्त कारण ईश्वर से इसके उपादान कारण सत्व, रज व तमोगुणों वाली प्रकृति से उत्पन्न हुई है। परमात्मा ने यह सृष्टि अपनी शाश्वत् प्रजा जो जीवों के रूप में अनादि काल से हैं, उनके लिए उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिये बनाई है। हमें मनुष्य योनि में वेदानुसार सद्कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त करना है। इसी के लिये वेद, उपनिषद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का ज्ञान है। इस लेख में प्रलय अवस्था में जीवों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य