गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

फ़स्ल पक कर आ गई जब खेत से खलिहान तक,
बोरियो में भर के पहुँची हसरतें दूकान तक।

बीज में कुछ खाद में कुछ फ़स्ल बांटी सूद में,
कुछ नही पहुंचा है फिर से देखिये दहकान तक।

अहलिया को क्या भला तफसील दूँ बाज़ार की,
वो समझ लेती है मेरी बेसबब मुस्कान तक।

जब भी ना महरम कोई भीड़ में छू ले उसे,
लम्स की पहुंचे रज़ालत जिस्म से इमकान तक।

दीमकें नक्काल बन कर खा गईं इल्मो अदब,
दास्ताँ तो छोड़िए चट कर गईं उनवान तक।

आदमी इंसान होने तक नहीं पहुँचा अभी,
और घोषित कर रहा है खुद को वो भगवान तक।

रवि शुकला बीकानेर

रवि शुकला बीकानेर

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