धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर हमें अभद्र छोड़ने और भद्र को ग्रहण करने की प्रेरणा करता है

ओ३म्

जिस प्रकार से संसार में सुख दुःख, विद्या अविद्या, दिन और रात, विद्वान मूर्ख, अच्छे बुरे व्यक्ति होते हैं उसी प्रकार मनुष्य जीवन में भी भद्र अभद्र गुण अवगुणों का मिश्रण होता है। परमात्मा वेदों में मनुष्यों को प्रेरणा करते हैं कि तुम्हें जीवन से अभद्र गुणों को छोड़ना है तथा भद्र गुणों को धारण करना है। भद्र गुणों के आचरण से मनुष्य का जीवन अभीष्ट लक्ष्यों की सिद्धि प्राप्त कराता है और अभद्र गुणों के कारण मनुष्य का सार्वत्रिक पतन होता है। हम जिन महापुरुषों को अपना आदर्श बनाते हैं वह अभद्र से रहित तथा भद्र गुणों का भण्डार ही हुआ करते हैं। उदाहरण के लिये हम ऋषि दयानन्द जी महाराज के जीवन पर दृष्टि डालते हैं। हमें उनके जीवन में सर्व-भद्र-भावनायें व गुणों का आधान दृष्टिगोचर होता है। वह ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, मातृ-पितृ भक्त, आचार्य-ऋषि-गुरु भक्त, सत्य के प्रेमी, भक्ति उपासना के आदर्श, विद्या के सूर्य, ज्ञान के सागर, अविद्या से रहित, अज्ञान-अविद्या-अन्धविश्वास पाखण्डों के विरोधी खण्डनकर्ता, नारी सम्मान के प्रेरक शिक्षक, गोरक्षक, गोभक्त, संस्कृत हिन्दी के प्रेमी, धर्म-प्रेमी, सत्य-उपासना के प्रचारक प्रसारक तथा समाज की सभी बुराईयों को दूर कर समाज को श्रेष्ठ मनुष्यों का समाज जिसे वह आर्यसमाज कहते थे जैसी उच्च भावनाओं वाले समाज के निर्माणकर्ता, सच्चे कर्मयोगी इन सब भद्र गुणों के धारक थे। हमें विश्व के इतिहास में ऋषि दयानन्द जैसा महान पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता। उनके जीवन में कोई अवगुण व आदर्श के विपरीत कोई कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता। वह अपने विरोधियों के प्रति भी सहानुभूति रखते हुए उनसे असत्य मार्ग को छुड़ा कर उन्हें सत्य मार्ग पर चलाने के लिये जीवन के अन्तिम क्षणों तक प्रयासरत रहे। ऐसे ही गुणों से युक्त संसार में कुछ अन्य महापुरुष हुए हैं परन्तु सब गुणों की पराकाष्ठा हमें ऋषि दयानन्द के जीवन में दृष्टिगोचर होती है। वह अपने जीवन में भूतो भविष्यति’ की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक जी ने अपने एक भजन की पंक्तियों में ऋषि दयानन्द जी के लिये कहा है मेरे देवता के बराबर सारे जहां में कोई देवता कहीं और होगा। जमाने में होंगे अनेक लोग लेकिन दयानन्द सा कोई और होगा।।’ हमें इस भजन के कुछ शब्द विस्मृत हो रहे हैं परन्तु उनके गीत की प्रथम पंक्ति के अधिकांश शब्द यही हैं और यह गीतकार का यह कथन पूर्णतया सत्य है।

ईश्वर हमें भद्र को ग्रहण करने और अभद्र का त्याग करने की प्रेरणा करते हैं, यह बात सभी ऋषि भक्त अच्छी तरह से जानते हैं। ऋषि दयानन्द जी का सबसे प्रिय मन्त्र यजुर्वेद का 30.3 प्रतीत होता है। सभी आर्यजन इससे परिचित हैं और इसका अर्थ सहित मघुर स्वरों से प्रतिदिन पाठ भी करते हैं। मन्त्र है ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।।’ इस मन्त्र का अर्थ भी प्रायः सभी आर्यजनों को हृदयंगम है। ऋषि के अनुसार इसका अर्थ है हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए (वा दीजिए)।’ इस मन्त्र में ईश्वर ने स्पष्ट रूप से सभी मनुष्यों को प्रेरणा की है कि वह अभद्र गुण, कर्म व स्वभाव का त्याग एवं भद्र गुणों का ग्रहण करें। ऐसा करने से हम सबका मनुष्य-जन्म सफल हो सकता है। वैदिक धर्म में प्रातः व सायं सन्ध्या का विधान भी किया गया है। इसका एक अर्थ तो स्वाध्याय अर्थात् स्वयं को पढ़ना, चिन्तन, मनन करना, अपने कर्मों के सद् व असद् स्वरूपों पर विचार करना, सत्य का ग्रहण करना व असत्य का छोड़ना आदि कर्तव्य निहित हैं। इसके साथ स्वाध्याय का एक अर्थ ऋषियों व विद्वानों के सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना भी होता है। सद्ग्रन्थों में वेद के विचार और सत्य शिक्षायें होती हैं जिन्हें जानकर हम उनके अनुसार आचरण कर सकते हैं और उनसे होने वाले लाभों को प्राप्त हो सकते हैं। जो मनुष्य स्वाध्याय नहीं करता वह अज्ञानी व अल्पज्ञानी ही होता है परन्तु नित्य स्वाध्याय करने वाला मनुष्य अन्यों की तुलना में अधिक ज्ञानी व विवेक बुद्धि से युक्त होता है और इसका लाभ सुख व आनन्द के रूप में उसे अपने निजी व पारिवारिक जीवन में भी अनुभव होता है। इसी कारण तो लोग सत्य मार्ग पर चलकर अनेकों कष्टों को उठाते हैं और स्वयं का जीवन बलिदान तक कर देते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ दुष्ट व अभद्र अवगुणों से युक्त एसे मुनष्य होते हैं वह अभद्रता को धारण करते हैं, वह जिसका खाते हैं, जिसे देश में रहते हैं उसकी संस्कृति, सभ्यता, अपने पूर्वजों तक से श्रद्धा रखने के स्थान पर अज्ञानता व मन्दबुद्धि होने के कारण स्वार्थवश विदेशियों के जाल में फंस कर अपना व अपने देश के लोगों की हानि करते हैं। उनका जीवन अभद्रता से युक्त होता है। इतिहास का अध्ययन करने से भी इन बातों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

समस्त वेदों का ज्ञान सत्य का स्वरूप प्रस्तुत करने के बाद हमें यह प्रेरणा करता हुआ प्रतीत होता है कि ईश्वर की भांति सत्य को ग्रहण व धारण करो। ईश्वर सत्य को धारण करने सहित सत्य कर्मों को करते हैं। हमें भी उनके अनुरूप कर्म करने चाहियें। ऐसा करने पर ईश्वर माता-पिता के समान हमारे हितकारी, मित्र, सखा, आचार्य, राजा, न्यायाधीश सुहृद बन्ध बन जाते हैं। ईश्वर का अध्ययन, चिन्तन, मनन, गुण-कीर्तन, भजन, उसके गीत गाने, उसके मुख्य निज ओ३म् नाम का जप करने तथा उसका सम्यक रूप से ध्यान करने से वह अपने उपासक भक्तों पर अपने आशीर्वादों तथा सुख शान्ति की वर्षा करता है। उपासक सदा स्वस्थ, प्रसन्न, निःशंक, उत्साहित, सन्तुष्ट, सुखी, मस्त तथा ईश्वर का कृतज्ञ बना रहता है और वह बलवानों एवं धनवानों से भी कहीं अधिक सुख आनन्द का अनुभव करता है। ऋषियों का वचन है कि यज्ञ करने से स्वर्ग अर्थात् सुखों की प्राप्ति होती है। सभी इच्छायें पूर्ण होती है। वायु व जल की शुद्धि तथा वातावरण सुगन्धित होता है। रोगों का नाश तथा आरोग्य की वृद्धि होती है। मन के दुःख व सन्ताप दूर होकर बिगड़े काम बन जाते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। सभी विद्वान तथा सभ्य व भद्रजन ऐसे व्यक्ति को अपना आशीर्वाद व शुभकामनायें प्रदान करते हैं जो भद्र भावनाओं से युक्त होते हैं। ईश्वर अपने उस भक्त को अभय प्रदान करते हैं। ईश्वरभक्त मृत्यु के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। ऋषि दयानन्द की तरह ईश्वर के ओ३म् नाम का जप करते हुए वह अपने अन्तिम श्वासों को छोड़ता है और कहता है हे ईश्वर! तूने अच्छी लीला की। तेरी इच्छा पूर्ण हों।’ यह वैदिक जीवन की एक झांकी है और आध्यात्मिक जीवन में भौतिक जीवन की अपेक्षा से जो पृथक व अनन्य सुख, आनन्द आदि की अनुभूतियां होती है, उसकी ओर संकेत है।

जिस प्रकार हम अपने माता-पिता व आचार्यों तथा मित्रों की आज्ञाओं व परामर्शों का विश्वासपूर्वक सम्मान करते व उनको स्वीकार कर उसके अनुरूप आचरण, पालन व व्यवहार करते हैं उसी प्रकार हमें ईश्वर के वेदों में दिये गये परामर्शों, शिक्षाओं, अज्ञाओं, निर्देशों तथा पथप्रदर्शन की बातों को भी मानना चाहिये और उसका पूर्णतः पालन करना चाहिये। ईश्वर माताओं की भी माता, पिताओं का भी पिता, आचार्यों का भी आचार्य, राजाओं का भी राजा तथा न्यायाधीशों का भी न्यायाधीश है। हमें उसकी अवज्ञा कदापि नहीं करनी चाहिये। ऐसा करके हम अपना व दूसरे मनुष्यों सहित अपने देश व समाज एवं समूचे विश्वास का भी कल्याण कर सकते हैं। हमें अभद्र को छोड़ना और भद्र को ग्रहण करना है। हमें इसके लिये ईश्वर से प्रार्थना करने के साथ स्वयं भी इसके अनुरूप पुरुषार्थ व तप करना है। ऐसे भक्तों व उपासकों को ईश्वर का सहाय एवं प्रेरणायें अवश्य प्राप्त होती हैं। जीवन का कल्याण होता है। ऐसा करके हमें मृत्यु पर्यन्त कभी पछताना नहीं होगा। एक कवि के शब्द हैं भरोसा कर तू ईश्वर पर तुझे धोखा नहीं होगा। ये जीवन बीत जायेगा तुझे रोना नहीं होगा।’ ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य