कविता

कितना मुश्किल होता है एक स्त्री का प्रेम में होना

कितना मुश्किल होता है न
एक स्त्री का प्रेम में होना
है प्रेम उसे तुमसे ,कह देना ।
हाँ !वही स्त्री जब प्रेम में
नहीं लाँघना चाहती अपने घर की दहलीज़,
नहीं देना चाहती अपनी परवरिश को धोखा,
भाई की इज्जत,पिता की नाक माँ की हिदायतें
 सब याद रखते हुए सिर्फ और सिर्फ
 सच्चे हृदय से प्रेम बस प्रेम करती है
सुनती है हजार तोहमतें अपने प्रेमी के
निर्दयी- निष्ठुर, दगाबाज़- धोखेबाज,
चरित्रहीन -डरपोक और भी न जाने
क्या-क्या कही जाती है, सिर्फ इसलिए
ताकि चौड़े हो सके कंधे उसके भाई के
बना रहता है पिता का सम्मान,
उसके पूरे कुल का अभिमान,
आखिर लड़कियां इज्जत होती है
हर घर की…।
किन्तु ,
वही स्त्री जब प्रेम में पड़कर स्वार्थी बन जाती है,
उम्र के एक ऐसे ढलान पर जीवन के उबाहट से
निकलने की कोशिश में
जब वो अपनी खुशी चाहने लगती है,
तब लाँघ जाती है घर की दहलीज़,
सहती है समाज और परिवार की ज़िल्लत
कहलाने लगती है कुलकलंकिनी…कलमुँही भी,
झुका देती है अपने इस कुकर्म से भाई के कंधे
चूर-चूर कर देती है पिता का सम्मान…
और फिर
दोषी बनती है उससे जुड़ी दूसरी स्त्री
श्रापी जाती है उसे “जनने वाली कोख”…।
सच!
कितना मुश्किल है न
किसी स्त्री का प्रेम करना
प्रेम में होना,फिर प्रेम में खोना
और
उससे भी मुश्किल है
एक स्त्री  का प्रेम निभाते हुए
स्वार्थी न बनना
अपने भाई और पिता से
किया हुआ वो वादा पूरा करना…।
— रीमा मिश्रा नव्या