कविता

रिश्तों को संभालो

देखो कहीं दरख़्त ना बन जाए दूरियाँ, मिलते रहो यक ब यक की कहीं अन्जान न बन जाए एक दूसरे का चेहरा।
नाप तोल कर वस्तुएं ली दी जाती है रिश्ते नहीं जनाब अपनेपन पर ये कैसा है पहरा।
सुस्ताए रिश्ते को संभाल लो ज़रा कहीं अहं के चलते अनमनेपन का गड्ढा बन  ना जाएं गहरा।
बहुत बेशकिंमती है अपनों का अपनापन बहती नदी सा बहने दो कहीं हो ना जाएं झील सा पानी ठहरा।
होती है अनबन भी अपनों से तो क्या हुआ कहीं मतभेद मनभेद न बन जाएं रिश्ते को बना लो गहरा।
जाने ना दो रूठकर रिश्तों को परवाह की तुरपाई से जोड़कर बचा लो, है अपने जो  संग तो ज़िंदगी का हर रंग है सुनहरा।
चाहिए कोई सुख दु:ख बाँटने वाला कँधा घेर लेता है जब अवसाद का बवंडर, थाम लो रिश्ते का समुन्दर न बन जाएं सहरा।
खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है चार दिन की जिंदगी को क्यूँ बैर भाव में बिताना है, मिल लो सबसे खुलकर उतारकर अहं का मोहरा।
— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर