कविता

बचपन जिंदा है

आज भी बचपन
जिंदा हो जाता है
जब फुर्सत के क्षणों में मिलता है
नन्हें मुन्ने बच्चों का साथ
उनके साथ खेलना, पतंग उड़ाना
झूठमूठ का रूठना मनाना।
याद आ ही जाता है
बचपन का वो अपना जमाना।
न कोई फिक्र, न ही चिंता
न कोई भेद,न नफरत,
न जाति धर्म का कोई खटपट,
न अपने पराये का चकचक
बस मस्त,अलमस्त
बच्चों को देखता हूँ
लड़ते झगड़ते फिर अगले फल
उसी तरह का मेल मिलाप
हुड़दंग मचाता बाल समूह
जिंदा हो उठता बचपन
तैर जाती है आँखों में
जिंदा हो जाती हैं तस्वीरें
अपने बचपन की।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921