कविता

मौन का बोझ

अपने ही भीतर
कितना ढोता है मन
तरह-तरह की बातें और उससे
उभरते परिदृश्यों की परिकल्पना को

यादों की पगडंडियों पर
दौड़ते,भागते ख्यालों को रोकना, थामना
असहज ही नही अकल्पनीय हो जाता है

वक्त की कैद घूंघट से झांकती
ह्रदय की नन्हीं चिरैया
पंख खोल समय की बंद खिड़की से होकर
उड़ जाना चाहती है

प्रेम और उसमें निहित
आकर्षण की अनुभूति के विस्तृत आकाश में
चक्कर लगाने की व्याकुलता से तृप्त होना चाहती है

प्रेम ख्यालों का वातावरण कुछ यूं हो जाता है तैयार
कि तन्हाईयाँ भी भरती है एहसासों की सरगोशियां

यूं भींच लेती है अपने आगोश के बांहों में
जैसे मदहोशी तन मन से लिपट गई हो
और अधीनता स्वीकार कर ली हो।

*बबली सिन्हा

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