गीत/नवगीत

झूठा हूँ मैं!

झूठा हूँ मैं! गीत झूठ के गाता हूँ ?

सुलग रहे जो दो कण संशय,
मेरे अन्तरतम की पीड़ा से।
फैली जग में घोर निराशा,
करूँ दूर मैं वीणा वाणी से।
आ जाओं जगमित्रों मेरे,
एक-एक ग्यारह होने को।
न टूटे लाठी किसी सहारे,
जीवन में आशा भरने को।

झूठा हूँ मैं! गीत झूठ के गाता हूँ?

दो रोटी की चिंता किसको,
तांडव करती चिता राख की।
लाशें! हाथ लहराती बोले जाती,
सुने पुकार क्यों कोई खाख की।
अमर जीवन की गाथा लुटती,
मुग्ध मौन प्रकृति तांडव से।
शेष रहे उपाय कौनसे ?
जो बचें हो इस मानव से।

झूठा हूँ मैं! गीत झूठ के गाता हूँ?

दरवाजे मौत खड़ी बाप रे!
फिर भी जीवन न नाप सके।
फिर-फिर तू फिर मौत बाँटता,
जग में फैल रहा विलाप रे !
खाने में कैद रहे क्यों जीवन!
किस अवसर से सोच रहे।
तू ही तो अपराधी जग का,
जीवन-कुसुम तुम नोच रहे।

झूठा हूँ मैं! गीत झूठ के गाता हूँ ?

ज्ञानीचोर

शोधार्थी व कवि साहित्यकार मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान मो.9001321438 ईमेल- binwalrajeshkumar@gmail.com