गीत/नवगीत

मनुज

       मनुज बना निरीह देखो
       चाहता मन आस खिसकी।
       उलझनों में उलझा पड़ा
       ले सहारा आज किसकी।
       रो रहा अपने किये पर
       वह स्वयं ही दोषमंडित।
       कुछ आकांक्षाओं के हित
       कर दिया क्या आज खंडित।
       व्यंजना भी रो रही है
       देख आंसू धार  उसकी।।
      छूटता जाता समय है
      सूझता अब पथ नहीं है।
      उम्मीद की किरणें दिखें
      ढूंढ़ता वह पथ कहीं है।
      फिरखिले खुशियाँ मुखर हो
      मनुज चाहता है जिसकी।
      काँच सा बिखरा हुआ है
      दर्प सारा चूर होकर।
      कुछ नहीं अब हाथ आता
      सिर पटकता आज रोकर।
       उलझनों में उलझा पड़ा
       ले सहारा आज किसकी।
— डॉ सरला सिंह ‘स्निग्धा’

डॉ. सरला सिंह स्निग्धा

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