गीत/नवगीत

साथ चलते हैं मगर…

दो  समानांतर  लकीरों  से  सनम  हम  और तुम,
साथ चलते हैं  मगर  होना  मिलन  सम्भव  नहीं।

जोड़कर   तुमको  घटाया  ही  नहीं  अहसास  ने,
मेरे मन  के केंद्र  से इस रूह  तक  के  व्यास  ने।
मैं व तुम और जगकी रस्मों के त्रिभुज मेंही कहीं,
आस का  समकोण यूँ चित्रित  किया परिहास ने।
किंतु वैदिक इस गणित में  संविलन सम्भव नहीं-
साथ चलते हैं मगर…

चाह  के  इक  बिंदु  पर  यूँ  भावनाएं  मिल  गईं,
वृत्त की  त्रिज्या सी सीमित  कामनाएं  मिल गईं।
शून्य के  विस्तार  में सपनों का  परिसीमन हुआ,
नापती  ब्रम्हांड  को   नव  कल्पनाएं  मिल  गईं।
प्रेम के इस भागफल का पर  गुणन सम्भव नहीं-
साथ चलते हैं….

काश!  तिर्यक  सी  कोई  रेखा  मिला  पाती हमें,
दूरियों  में  भी  निकटता  की  गणन  भाती  हमें।
एक थ्योरम  ही रहे अब तक  प्रतीक्षित हल नहीं,
कोई तो  करता सरल  नियमों की  ही थाती हमें।
हाय!अब अफसोसका पर आंकलन सम्भव नहीं-
साथ चलते हैं मगर…

— दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर प्रज्ञापुरम संचार कॉलोनी छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश)