कहानी

बदनाम

 

बदनाम

सच और झूठ का पता करना मुश्किल ही नहीं, बहुत ही मुश्किल है। कौन सच बोल रहा है, कौन झूठ ? आधी हकीकत को झूठ के आवरण में लपेटकर इस तरह से परोसा जाता है और बार बार परोसा जाता है कि वह सच को सबकी आंखों से ओझल कर देता है। लोगों के कानों तक पंहुची आवाज और पुनः उसका एक कान से दूसरे कान तक पंहुचने पर झूठ पूर्ण हकीकत का रूप लेकर सच को पर्दे में दफ्न कर देता है। जब तक सच बाहर आता है, रिश्ते इतना दरक चुके होते हैं, टूट चुके होते हैं, बार बार गांठ डालकर इतना मजबूत हो चुके होते हैं कि इंसान चाहकर भी लौट नहीं पाता। बस प्रतीक्षा करता रह जाता है कि वक्त आए और सच बाहर आए।
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एक तरफ गुस्से में मां को देख रहा है, दूसरी तरफ कांपती थरथराती पत्नी को। पत्नी कुछ बोल नहीं पा रही, सिर्फ कातर दृष्टि से कुछ कहना चाहकर भी चुप रह रही है। न कुछ मां को बोला और न पत्नी को, मनीष अपनी पत्नी प्रिया को बांह पकड़कर अपने कमरे में ले गया। उसके बांहों में निढाल होकर हकरते हुए प्रिया धीरे से कुछ बोलना चाही, पर फिर चुप हो गयी। बंद दरवाजे के बाहर किसी की धीमी पदचाप बता रहा था कि कोई दरवाजे पर कान लगा कर सुनने की कोशिश कर रहा है। वह धीरे से ईशारे की और मनीष के होंठों पर अंगुली रखकर चुप रहने को धीरे से कहा। शनिवार के दिन मनीष शाम को ही धनबाद से बरही वापस आया था। वह बैंक में किरानी के पद पर काम कर रहा था। उस वक्त उसे चौदह सौ के आस पास मासिक तनखा मिलती थी। उन्नीसवीं शताब्दी का आठवां दशक था, उसकी शादी को दो माह ही बीते थे। उस समय न मोबाइल का जमाना था, न टी वी का। मनीष दो दोस्तों के साथ धनबाद में किराए के मकान में रहता था। सोचता था, तीन चार सालों में अफसर बन जाउंगा तब शादी करूंगा। पर घर वालों के दबाव और पिता की बीमारी से उसे फैसला बदलना पड़ा था। शादी तो हो गयी, पर घर में हो रही घटनाओं से अशांत रह रहा था। समझ नहीं पा रहा था कि क्या किया जाए। शादी के बाद चाहता था कि पत्नी एक दो साल तक घर में ही रहे और घर वालों की नाराजगी दूर हो। पर बात बिगड़ती जा रही थी। मनीष की पत्नी प्रिया को शादी के पहले नापसंद कर दिया गया था। मनीष की मां चाहती थी कि उसकी शादी राजधनवार में हो, वहां की लड़की हृष्ट-पुष्ट शरीर की और लंबी थी, पर सिर्फ मैट्रिक पास थी। प्रिया बिल्कुल दुबली पतली और कम कद की थी, पर बी ए पास थी। मनीष के पिताजी प्रायः बीमार रहते थे। उनकी परचून की दुकान थी, उसी से पूरा घर चलता था। आर्थिक स्थिति साधारण थी। उन्होंने फैसला बेटे पर छोड़ दिया था। मनीष ने पढ़ाई को महत्व देते हुए प्रिया का चुनाव किया था। मां कहती थी – लईका पठिया, लईकी कठिया। ( लड़का पाठे के जैसा हृष्ट पुष्ट और लड़की सूखी लकड़ी के जैसा दुबली पतली)
मनीष बोला था – शिक्षा का अपना महत्व है। शरीर क्या, कुछ दिनों में भर जाएगा।
फिर बात शाकाहारी और मांसाहारी पर अटक गयी। प्रिया का परिवार शाकाहारी था और मनीष का परिवार मांसाहारी। मनीष ने कहा था – यह लड़की वालों पर छोड़ दिया जाए कि यदि उन्हें मांसाहारी परिवार पसंद है तो ठीक है। प्रिया के माताजी और पिताजी को इस पर कुछ एतराज नहीं था।
तब मनीष ने प्रिया से ही शादी करने का निर्णय कर लिया। उसकी मां के नहीं चाहने के बावजूद यह शादी हो गयी। प्रिया को इसी नापसंदगी का खामियाजा भुगतना पड़ रहा था। उसकी गलती बस इतनी थी कि वह मनीष के द्वारा पसंद किए जाने के बाद शादी के बाद इस घर में कदम रखी थी। यहीं आकर पता चला था कि घर वालों की पसंद कोई और थी। किसी न किसी बात पर कमी ढूंढते हुए किस्मत को कोसा जा रहा था। हर इंसान में अच्छाई और बुराई होती है, आप जिस नजर से देखना चाहेंगे, वही नजर आने लगेगा। प्रिया के हर काम में नुक्स निकाला जाने लगा। ताने कसने प्रारंभ कर दिए गए। धीरे धीरे भाई और बहनें भी उसी सुर में उलाहने देने लगे। बात अगल बगल में फैलने लगी। मां जहां भी जाती , प्रिया की बुराई आरंभ हो जाती। मां की नापसंदगी पूर्वाग्रह बन प्रिया की गलती से हुई गलती को भी बड़ी बुराई बनाकर दिखाने लगी। नापसंदगी कब नफरत का बीज बनकर उनके अंदर पनप गया, और जैसे भी हो, उसे नीचे गिराया जाए, एक यही उद्देश्य बन गया। दूसरे को नीचे गिराने में खुद कितना नीचे गिर गए, यह उन्हें पता ही नहीं चला। उनका मायका से बहुत ही लगाव था। उनका पूरा मायका और मनीष का नानी घर प्रिया और मनीष के बारे में मां की आवाज में बोलने लगे। मनीष को समझ नहीं आ रहा था, क्या करे, क्या न करे। प्रिया ने रोते रोते एक बार मनीष को कह डाला – क्यों आपने मुझसे शादी की ? आपको घर वालों की बात सुननी चाहिए थी। मैं पूरी जिंदगी क्या इसी दंश के साथ जीऊंगी। मेरा परित्याग कर दें, और आप दूसरी शादी कर लें।

मनीष अपनी छोटी सी तनखा में जो बचा पाता था, उससे बहुत कुछ परिवार के लिए नहीं कर पाता था, पर छोटी मोटी जरूरतें पूरी कर लेता था। अपनी नौकरी के तीन सालों में जो बचा पाया था, वह सारे लगभग शादी में खर्च हो चुके थे। उसकी तुलना सदैव एक ऐसे शख्स से की जाती जो मां के मायके में बड़े पद पर थे और उनकी कमाई अफ़लातून थी। शादी के वक्त घर में जो मेहमान आए थे, उन्हें कपड़ा देकर विदाई करने के लिए भी जिम्मेवारी मनीष को दी गयी थी। भला हो बनवारी काका की कि उन्होंने अपने कपड़े की दुकान से उधारी पर कपड़े देते गए। मनीष शादी के बाद जब नौकरी पर लौटा तब बैंक से स्टाफ ऋण लेकर उन बकाए रकमों को चुकता किया था।
घर में पाखाना कमरा नहीं था। लोग घर के पिछवाड़े के बाड़ी में अथवा सामने के मंदिर के बगल में मैदान, खेत वगैरह में पानी भरे लोटा के साथ जाते थे और फारिग होते थे। मनीष ने शादी के पहले मां को कुछ रकम हांथ में देकर एक पाखाना घर बनाने को बोला था, पर वह बना नहीं, टाल दिया गया था। शादी के बाद जब प्रिया आयी तो उसे इस तरह पाखाना जाने की आदत नहीं थी। दूसरे दिन मनीष से बोली – अस्थायी तौर पर टाट का छोटा सा घेरा बनवा दो, जहां जा सकूं।
मां ने सुना तो घर में तुफान खड़ा हो गया। बोला जाने लगा – “क्या तुम्हारे पिताजी को नहीं मालूम था कि पाखाना घर हमारे यहां नहीं है। क्यों तेरी शादी ऐसे घर में कर दिए।” घर के अन्य सदस्य अपने चेहरे पर मुस्कान लिए चिढ़ा रहे थे। पर पिताजी ने तुरंत घर के नाले पर पुरानी चादर से घेरा बनाकर प्रिया को कहा था – बेटा, यहीं तबतक जाया करो।
हद तो एक दिन तब हो गयी, जब मनीष की मां ने घर में मांस पकाने के लिए पिताजी को मांस लाने बोला। घर में बकरे का मांस लाया गया, बनाने के पहले प्रिया ने प्याज, अदरक, मिर्च आदि काटकर रख दिए, पर मांस को धोने और बनाने से इंकार कर दिया। मां ने बहुत बुरा भला कहा। पिताजी समझाते रह गए, पर मां ने ताना मारना नहीं छोड़ा। बोलते बोलते कह गयी – शादी के पहले तो तुम्हारे मां पिताजी को तो कह दिया गया था, क्यों शादी के लिए तैयार हो गए थे। अब हमारे घर के अनुसार ढलना होगा। तुम्हें मांस खाने की आदत डालनी होगी।
प्रिया रोते रोते घर के सामने के मंदिर में जाकर बैठ गयी।
मनीष अंदर ही अंदर उबल रहा था, पर कुछ कह नहीं पा रहा था। वह भी कुछ देर बाद मंदिर में जाकर प्रिया को समझाने लगा। प्रिया ने कहा था – सिर्फ तुम्हें देखकर ही मैं जी रही हूं। मां चाहती हैं कि तुम मुझे छोड़ दो और पुनः दूसरी जगह शादी करो।
मनीष उसे समझाता रहा। उसकी बेबसी कब आंसु बन ढलकने लगे, उसे पता ही नहीं चला। दो घंटे बाद दोनों वापस घर लौटे, तब देखा कि सारे जूठे बर्तन अंगने में डाल दिए गए थे। बहुत अच्छा मांस बना था, इसकी चर्चा सब खूब कर रहे थे। प्रिया ने भूख नहीं है, कहकर कुछ भी खाने से इंकार कर दिया था। मनीष के सामने ही प्रिया को सारे बर्तन साफ करने को कहा गया। मनीष ने आगे बढ़कर प्रिया के साथ मिलकर सारे जूठे बर्तन चुपचाप साफ कर दिए। फिर तो ताना कसा गया – जोरू का गुलाम है।
शाम तक मनीष ने कुछ निर्णय ले लिया था पर उस निर्णय को न प्रिया को और न ही मां को बताया। जब पिताजी दुकान से लौटे तब मनीष ने पिताजी से कहा – कल मैं प्रिया को लेकर ससुराल जा रहा हूं। मैं उसे पंद्रह दिनों के लिए ले जा रहा हूं।
मां – अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया ?
पिताजी – बेटा, दस पंद्रह दिन बाद जाते तो ठीक रहता।
मनीष – पिताजी, अभी जाने दीजिए। और मैं मां के रवैया से आहत हूं। जबरन एक शाकाहारी से मांस पकाने कहना, फिर खाने के लिए बाध्य करना और मांस के जूठे बर्तन मंजवाना, अच्छी बात नहीं है। प्रिया के मान सम्मान और आत्म-सम्मान के बारे में मुझे तो सोचना ही पड़ेगा।
हम दोनों कल घर से जा रहे हैं।
मां – जाने दीजिए, मनीष से उम्मीद भी नहीं है। उसे तो अपनी बीबी के अलावा कुछ दिखता नहीं। आज तक वह घर के लिए किया ही क्या है ?
मनीष – हां मां, मैंने अपने सीमित तनखा में जो कर सका वो किया। रही बात प्रिया की, तो आप प्रिया की कितना परवाह करती हैं, मुझे दिखता है। मैं आपकी इज्जत करते हुए नहीं बोलता, इसका यह तो मतलब नहीं कि मैं समझता नहीं। पर मुझे उसकी परवाह है। मेरी पत्नी है।
मां जोर जोर से रोने लगी, चिल्लाने लगी, कहने लगी – सब समझती हूं। तुम नालायक बेटा हो। एक तो अपनी इच्छा से लड़की पसंद की, अब बीबी के अलावा कुछ दिखता नहीं।
पिताजी अवाक थे, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, किसको क्या कहें। मां को चुप कराते हुए अपने कमरे में ले गए।
उस रात प्रिया मनीष से कह बैठी – कहीं आप गलत निर्णय तो नहीं ले रहे हैं।
मनीष – नहीं प्रिया, मैं अपनी अंजुलियों से रिसते हुए पानी को देख रहा हूं । एक ऐसा प्रयास जो कुछ समेटने की चाह में कुछ खोता रहता है। जो जाना चाहता है, उसे नहीं रोकना भी प्रेम है और जो वापस लौटकर मिलना चाहता है, उसे अपने में समाहित करना भी प्रेम है। यह बिल्कुल नदियों एवं सागर की लहरों और सागर के बीच के प्रेम के जैसा। सागर की लहरें तरंग बनकर जब सागर से दूर जाना चाहती है तब सागर उसे रोकता नहीं और जब वापस लौटती हैं तो फिर समाहित होकर सागर बन जाती है। नदियों का मीठा पानी सागर में जब मिलती हैं तो अपना अस्तित्व खोकर सागर के पानी जैसा खारा हो जाती हैं। रिश्ते कब दरकने लगते हैं, लोगों को पता नहीं चलता। जब तक पता चलता है, देर हो चुकी होती है, इतनी देर की लौट के वापस आने में भी बंधा महसूस होता है।
प्रिया – पुनः आप एक बार सोच कर निर्णय लें।
मनीष – जब नया रिश्ता बनता है तो जिम्मेदारी सिर्फ बहू की नहीं, उस घर वालों की भी बनती है, जहां वह अपना सर्वस्व अतीत को छोड़कर एक नए वातावरण में प्रवेश करती है। नए रिश्ते की नींव ठोस बनाने के लिए उसमें प्यार और मीठे बोल की आवश्यकता होती है। ताने, शिकायतों से रिश्ते दहकते एवं दरकते हैं। जब रिश्ते की शुरुआत नफरत, डर और पूर्वाग्रह से हो तो रिश्ते में दरार आना स्वाभाविक है। भले ही तुम आज नहीं बोल रही हो, पर तुम्हारे अंदर जो दरक रहा है, रीत रहा है, भींग रहा है, वह कभी न कभी आवाज बनकर निकलेगा। जब निकलेगा तब बहुत ही बुरा होगा। यदि अपने घर के ही लोग सैकड़ों बुराईयां खोजेंगे तो दुनिया वालों को हजार बुराइयाँ नजर आएंगी। मैंने अपना कदम आगे बढ़ा दिया है। निर्णय और परिणाम वक्त पर छोड़ रहा हूं। बुरा होगा, अथवा भला, दोनों स्वीकार करूंगा। सिर्फ तुम्हारा वादा चाहिए, हमारे अच्छे और बुरे वक्त में भी सदैव साथ रहोगी।
फिर प्रिया कब मनीष के कंधे पर निढाल हो गयी, पता नहीं। अहले सुबह आंख खुली तो फटाफट अपने कपड़े हैंडबैग में डाली और मनीष को उठाया। कुछ नाश्ता बना लूं। मनीष ने मना कर दिया। पर प्रिया ने फटाफट सबके लिए पराठे और सब्जी बनाकर रख दी। चलने वक्त सास ससुर को प्रणाम किया। मनीष और प्रिया बिना खाए घर से निकल पड़े। मनीष ने चलते वक्त मां, बाबूजी को पैर छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूला।
फिर तो दोनों को ऐसा बदनाम करने का सिलसिला शुरु किया गया कि दोनों बीमार पिताजी की सेवा करने के बजाए मौज मस्ती के लिए ससुराल चले गए, बहू घर में रहना नहीं चाहती, खाना बनाना नहीं चाहती, बर्तन नहीं मांजना चाहती, अपने पति मनीष को सदैव मां बाप के बारे में झूठ बोलकर उकसाती है, मनीष भी मौगा है वगैरह, वगैरह••••••••••। बहू की बुराई के साथ बेटे की भी बुराई शुरु हो गयी।
बदनाम•••••••••और बदनामी का दंश झेलते हुए दोनों घर परिवार से कटते गए•••••••कटते गए। कहते हैं बद अच्छा, बदनाम बुरा । कभी किसी शादी में जाते तो हिकारत और सवाल पूछती निगाहों से गुजरते हुए जिल्लत झेलते। आंखों का काजल धीरे धीरे माथे का कलंक बनता गया। जब भी कहीं किसी से मिले, तो सिर्फ फुसफुसाहट और तीखी नजरों का सामना करता पाया।फिर वे लोग परिवार की शादी समारोहों से भी मुकरने लगे। किस किस को जवाब दें, कितनों को जवाब दें और क्यों दें। सब को वक्त खुद ब खुद जवाब देगा। सब कुछ वक्त पर छोड़ आगे बढ़ चले••••••••••••। अपने अंदर जो सीलन पैदा हो रही थी, वो बजबजाकर बाहर निकलना चाहती थी। पर कदम संभाल लिए। जिसको जो कहना है, कहते रहो•••••, जो सोचना है, सोचते रहो•••••••। दोनों ने जीवन संघर्ष को अपनाया, शिकवा करने वालों को अनदेखा कर आगे बढ़ना सीखा। जीवन है, चलना है, आगे बढ़ना है, यही तो जिंदगी है।
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श्याम सुन्दर मोदी

शिक्षा - विज्ञान स्नातक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से प्रबंधक के पद से अवकाश प्राप्त, जन्म तिथि - 03•05•1957, जन्म स्थल - मसनोडीह (कोडरमा जिला, झारखंड) वर्तमान निवास - गृह संख्या 509, शकुंत विहार, सुरेश नगर, हजारीबाग (झारखंड), दूरभाष संपर्क - 7739128243, 9431798905 कई लेख एवं कविताएँ बैंक की आंतरिक पत्रिकाओं एवं अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित। अपने आसपास जो यथार्थ दिखा, उसे ही भाव रुप में लेखनी से उतारने की कोशिश किया। एक उपन्यास 'कलंकिनी' छपने हेतु तैयार