सामाजिक

बेटी की चाहत

आज के दौर में भी जब बेटी बेटा एक समान का ढोल पीटा जा रहा है ,तब 2002 में मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ।बेटी के जन्म से मेरी बेटी की इच्छा पूरी। हो गई।क्योंकि मुझे बेटियों से कुछ अधिक ही लगाव शुरू से था।
मेरी भतीजी बहुत छोटेपन से ही कई बार मेरे साथ हफ्तों हफ्तों तक मेरे पास रह जाती थी।ये मेरे पढ़ाई के समय की बात है,जब मैं कमरा लेकर किराए पर रहता था।
मेरी बड़ी बेटी के जन्म के पूर्व मेरी पत्नी भी बेटे की ही इच्छा रखती थी।जैसा की हर नारी की कामना होती है।शायद सास बनने की ये सदइच्छा कुछ अधिक ही प्रबल हो जाती है।खैर….।
लेकिन मेरी पत्नी की चिंता महिलाओं/लड़कियों के साथ हो रही घटनाओं और दहेज की भेंट चढ़ रही बेटियों के खौफ के कारण था।उनका आज भी मानना है कि बेटियों की परवरिश से अधिक चिंता उनकी सुरक्षा को लेकर होती है।बेटी के माता पिता के अंदर हर समय एक अजीब सा असुरक्षा भाव होता है। बात सही भी है,क्योंकि अब हालात जिस तरह हो रहे हैं,उसमें यह डर स्वाभाविक है। विशेष रूप से माँओं के लिए।
फिर एक विडम्बना ये भी है कि बेटा नहीं होगा तो अंतिम संस्कार कौन करेगा?मोक्ष कैसे मिलेगा? मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि बेटे की चाह हम जीवन काल के लिए कम वंश चलाने,दाह संस्कार कराने और मोक्ष पाने के लिए अधिक करते हैं।आखिर बेटियों के दाह संस्कार करने से कौन सा पहाड़ टूट जाता है या जायेगा।आखिर हम ही उनकी भी परवरिश करते हैं,पढ़ाते लिखाते हैं,शादी ब्याह करते है,फिर भी उनको इस दायित्व के योग्य भी नहीं मानते हैं। मैंनें अपनी इच्छा अभी से अपनी बेटियों को बता दिया है कि मेरा दाह संस्कार वे ही करें।
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आज बेटियां ही नहीं होंगी तो कल बेटा कहाँ से होगा। सृष्टि का नियम कैसे संपूर्ण होगा।
फिलहाल मेरे पास दो बेटियां हैं और वे ही मेरे लिए सब कुछ हैं,मुझे कभी भी यह विचार नहीं आया कि काश एक बेटा भी होता।मैं अपनी बेटियों के हर सपने को पूरा होने के हर कदम पर मजबूत दीवार की तरह उनके साथ हूँ, जितना अधिकतम संभव हो सकता है,मैं उनके हर सपने के साथ खड़ा हूँ। मुझे अपनी बेटियों पर,उनकी सफलताओं पर गर्व है।
सच कहूँ तो बेटियों का बाप होकर भी मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूँ।क्योंकि मेरी बेटियां मेरी मेरा मान, सम्मान, स्वाभिमान और अभिमान हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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