कविता

मेरी अधूरी रचना

अचानक एक दिन
मेरे मन में भी
कवि बनने का भाव आया,
कारण कि मेरे पड़ोसी ने
कवि बनकर खूब नाम कमाया।
खुशी खुशी बड़े मनोयोग से
मैं भी लिखने बैठा,
पर मेरा दिमाग तो था
जैसे ऐंठा ऐंठा।
जैसे तैसे आखिरकार
कलम चल गई,
जाने कैसे खुद ब खुद
पूरे पन्ने रंग गई।
पर ये क्या
कमाल की बात हो गई,
पूरे पेज में हर कहीं शब्दों के
तालमेल में दुश्मनी सी ठन गई।
शब्द भी जैसे मेरा
मजाक बनाने पर आमादा थे,
लिखता मैं कुछ और था,
लिख जाता कुछ और था।
मैं भी जिद पर उतर आया
कविता तो लिखकर ही रहूंगा
बात मुझे घर कर गई।
मैं पन्ने रंगता रहा
अपने लिखे को बड़ी उम्मीद और
मनोयोग से पढ़ता रहा,
अपने ही लिखे शब्दों के
जाल में फंसता रहा।
मैं बार बार झल्लाता
पन्ने फाड़कर फेंकता,
फिर लिखने की कोशिशें करता
फिर फिर फिर पन्ने फाड़ता
क्रम ये लगातार चलता रहा।
आखिरकार अंत में
चार लाइनों की
तुकबंदी करने में
सफल हो ही गया,
शुक्र था कि अब तो केवल
डायरी का कवर ही रह गया।
मैनें बड़ी मुश्किल से
खुद को समझाया
किसी तरह कवि बनने का भूत
अपने सिर से उतार पाया।
फिर भी मैं बहुत खुश था
आखिर होता भी क्यों न?
विलक्षण भाव से
मेरा मन हर्षाया ,
अधूरी रचना से ही सही
कवि तो बनकर ही
आखिरकार मुझे चैन जो आया।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921