कहानी

कहानी – एड्स

‘गाँव में नंदी बैल आया है और उसके साथ दो बाबा भी हैं।’ बच्चों के मुँह से यह खब़र राजो को भागते बच्चों से पता चल गई थी। वह उछल पड़ी थी। वह चिल्लाई, ‘कोई उन बाबों को मेरे घर में भी ज़रूर आने को बोलो, मैंने भी तो नंदी बैल से बहुत कुछ पूछना है।’
बच्चों ने उसकी कौन सी बात सुनी, वे तो तब तक नंदी बैल के साथ साथ किसी के घर तक पहुँच चुके थे। राजो भी दौड़ जाती उस घर तक पर अभी तो उसे भैंस से दूध दुहना है और साथ में वह वहाँ सभी गाँव वालांे के सामने जो उसने पूछना है नंदी बैल से, वो पूछ भी नहीं सकती है, इसलिए चुपचाप जल्दी में भैंस से दूध दुहने बैठ गई। उसका मन उछलने लगा था साथ में वह इतनी परेशान हो गई थी कि जल्दी से भैंस का दूध दुहते वक्त उसकी नज़रें बस आँगन पर ही थीं, दूध की धारें कभी बाल्टी में तो कभी बाल्टी से बाहर गिरे जा रही थीं।
उसने सोच लिया था कि वह क्या-क्या पूछेगी? दूध नीचे गिर रहा था और उसने झट से वह सब सोच लिया था जो उसे नंदी बैल से पूछना है। उसके मन में तो एक ही बात हर वक्त साए की तरह चिपकी रहती है वह यह है कि उसका इकलौता बेटा जो बम्बई में ट्रक ड्राइवरी करने गया है, वह कब लौटेगा? लोग तो उसे यहाँ तक कह देते हैं कि अब पता नहीं वो आएगा भी नहीं! दसवीं की पढ़ाई छोड़कर चला गया था वह और आज पूरे दस साल हो गए। उसे तो एक-एक महीना, एक-एक साल याद है। कुछ तो कहते हैं कि वह होगा की नहीं! इस विचार से उसके चेहरे पर पसीने उतर आए।
बस अभी धार खींची थी कि नंदी बैल के साथ आए बाबा के हाथ में पकड़ा घुँघरुओं वाला डंडा उसके आँगन में ज़मीन पर ठोकर मारने से बज उठा। उसने दूध दुहना एक दम से छोड़ दिया, भैंस की कट्टी पी लेगी आज ज़्यादा, और दूध वाली आधी बाल्टी लिए गौह्ड ‘पशुओं के कमरे’ से आँगन की ओर दौड़ पड़ी। ‘रुक जाओ बाबा! आ रही हूँ, बस आप लोग रुको।’
उसने दूध की बाल्टी को बरामदे के अंदर से ऊपर रसोई की ओर बनी सीढ़ियों पर थोड़ा ऊँचाई पर रख दिया।
बाबा ने बात पकड़ी और साथ में दूसरे बाबा ने भी, ‘चाय पिला दो बाबाओं को पहले, अभी कच्चे दूध की चाय का मन है बाबा का, फिर आराम से नंदी बैल से अपने मन के प्रश्न पूछना।’
वह बोली, ‘हाँ! हाँ! बाबा जी! मैं अभी लाती हूँ, आप आराम से बैठें। बरामदे के एक ओर रखे लकड़ी के पुराने से बेंच की ओर इशारा करके वह दूध उठाकर एकदम पौड़ियाँ चढ़ गई। बाबा की बात को वह मोड़ नहीं सकती थी, पर उसके मन में उठा ज्वार किनारे की सरहद से टकराते हुए जल्दी से नंदी बैल से प्रश्न पूछने का था। ऊपर रसोई में भी अभी आग भी नहीं थी। वह झट से घास के एक पूल्ले के लिए नीचे गोह्ड की ओर भागी और फिर रसोई में आग जलाने लगी। दूर से देखने पर सारी रसोई में धुआँ निकल कर उसके घर के ऊपर फैल चुका था। रसोई में आग का बड़ा फव्वारा उठा और फिर चाय बनने लगी। कच्चा दूध डालकर उसने फिर मन में उठने वाले प्रश्न को दो-तीन बार दोहरा लिया। विधवा के घर में सिर्फ सन्नाटे के सिवा अभी और कोई न था। उसके पति राम लाल तो कब के छोड़ के जा चुके थे और फिर इकलौता बेटा दूर शहर में गायब हो गया। गाँव के लोग तो खेतों की ओर थे। राजो ने नंदी बैल से बस एक ही प्रश्न पूछा और उसे हाँ में जवाब मिल गया। बस अब तो आते ही तिलक की शादी करनी है। उसने तो अपनी सगे संबंधियों को कह दिया है कि तिलक की शादी के लिए बस लड़की ढूँढ़नी है।
आखि़र कुछ दिनों के बाद तिलक राज ने राजो के आँगन में छिटकी उदासी की धुंध को परे भगाते हुए अपने घर में प्रवेश कर लिया था। राजो ने कई दिन तक अपने देवी देवताओं को धन्यवाद में कई कार्य कर डाले।
तिलक राज के घर आने के बाद राजो ने महसूस किया कि तिलक राज सदा उदास सा रहता है। उसके चेहरे पर न रौनक है, और न ही गाँव, खेतों और सगे संबंधियों के मिलने की इच्छा जाहिर कर रहा है। एक शाम उसे खाना खिलाते हुए राजो बोली,‘बेटा तिलक, क्या बात है? क्यों तुम उदास से रहते हो? मैंने तुम्हारी शादी के लिए लड़की ढूँढ़ ली है। हमें कुछ ही दिन में उसे देखने जाना है, तभी तुम्हारी उदासी ठीक होगी।’
तिलक राज के मुँह से एक शब्द न फूटा था। राजो ने इसके बाद कई पंडितों के पास चक्कर लगा लिए, उसे यकीन था कि इसके ऊपर किसी जादू टोने या फिर ग्रहों के उलट फेर का साया है। वह पंडितों के दिए जंत्र तिलक राज के हाथों, बाहों में बाँध चुकी थी। धूनी जलाए राजो ने जैसे ही तिलक के कमरे में प्रवेश किया कि वह दवाइयों की तीन- चार मात्राएँ अभी मुँह मे घटकने ही वाला था।
“अरे! ये क्या? बेटे तुम्हें क्या बीमारी है? जो तुम इतनी दवाएँ खा रहे हो।’
‘वो…वो… माँ बस….,’ और उसने दवाएँ एक पल में ही छिपा ली थी। तिलक राज के पास कोई जवाब नहीं था लेकिन राजो की नींद उड़ चुकी थी। तिलक राज के चेहरे की उदासी अब राजो ने अपना ली थी। जब भी तिलक उसके सामने आता उसकी बुझी आँखें और आँखों के इर्द-गिर्द बने काले घेरे दो गहरे अँधेरे को समेटे कुएँ की भांति लगते जिनमें दर्द सोया रहता है। चेहरा रक्तहीन और निस्तेज़ नज़र आता और शरीर जैसे हाड माँस को धारण नहीं करना चाहता हो।
इसके बाद राजो चोरी छिपे जैसे तिलकराज की हरकतों का पीछा करने लगी थी। घर में सन्नाटा उसका साथ दे रहा था। राजो सोचती, ‘वह अब मौन नहीं रह सकता। उसे जवाब देना होगा कि इतनी दवाइयाँ क्यों खा रहा है।’ फिर वह अपने मन से, दीवारों पर टँगी ईश्वर की पुरानी तस्वीर से, देवता से पूछती रहती। राजो को जब तक जवाब नहीं मिल गया तब तक राजो के घर आँगन मे हवा के झोंको ने अपनी ठंडक नहीं छोड़ी, न सूर्य की सुबह की किरणों ने आँगन में नाच गाने छोड़े, न रसोई की आग ने अपनी तपस दिखाई और न ही चपातियों पर चोपडे़ घी ने अपनी खुशबू बिखेरी।
दोनों के बीच का द्वंद चलता रहा। आखिर एक दिन राजो ने ज्येष्ठ की दोपहर को भभकती गर्म साँसों के संग अपने स्लेटों के घर के ठंडे कमरे में प्रवेश किया और अँधेरे में सोए तिलक राज को जगा कर पूछ लिया। जवाब मिल गया था, ‘मुझे एड्स है माता, मैं अब दूसरी स्टेज पर पहुँच गया हूँ।’
बस राजो के पैरों की ज़मीन छूट गई थी। वह काँपती टाँगों के साथ-साथ वाले कमरे में पसर चुकी थी।
‘हे भगवान् ये क्या दिन दिखा दिया? क्या इसी दिन का मैं इंतज़ार कर रही थी, तेरी चैखटों पर सिर रगड़ रही थी, इससे तो अच्छा था तू उसे भेजता ही नहीं। मैं चुपचाप उसका इंतज़ार करती रही तो एक आस तो रहती तुझसे पूरी ज़िंदगी काट लेती और फिर एक दिन आँखें मूँद लेती।’
मिट्टी की दीवारों पर विनाश की तस्वीरें अपने आप उकरने लगी थी।
उधर लड़की वालों का संदेश आ चुका था बस राजो की तन्द्रा टूट चुकी थी। कुछ फुसफुसाहटें उसके कानों को छूकर गुजरने लगी। अंजाने खतरों के पदचाप के स्वर सुनाई देने लगे। राजो की शांति के वातावरण की एकरसता सहसा भंग हो गई थी। जीवन का जमा हुआ संतोष पिघनले लगा था। चहुँ ओर हरियाली को जलाते उजाड़-बीयाबान पथरीले रास्ते उभरने लगे थे।
राजो के मन में ऐसे दृश्य नाच रहे थे, बहू को भी एड्स हो जाएगी उसके पोते या पोती को भी, बस चहुँ ओर एड्स का राक्षस उसके पुराने कमरों में अट्ाहास करता हुआ नाच रहा था।
दिन-रात बुढ़िया के अंदर कई तरह की आवाजे़ं उठने लगी, यें आवाज़ें समाज के चेहरे में उग आए हज़ारों मुँहों से निकल रही थी। इन आवाज़ों में नफरत थी, गुस्सा था और साथ में थे जहर के उमड़ते बादल।
‘वाह री राजो, एक ऐसा ज़हर पैदा कर दिया तेरे लाल ने जो पूरे समाज को डसेगा।’
‘तुम्हें शर्म न आई जो इस बीमारी को घर बुला लिया ताकि तू किसी और का घर भी उजाड़ सके।’
‘कोहड़ है यह ज़माने का इसे दूर फेंको, जहाँ से आया है वहीं भेज दो।’
‘कलंकित कर दिया है इसने पूरे गाँव को, पूरे इलाके में चर्चा हो रही है, थू-थू हो रही है।’
‘अगर उस पर बड़ा लाड़ आ रहा है तो तू भी चली जा उसके साथ ही पर इस गाँव को तो न उजाड़। अब कोई घर न बचेगा इस बीमारी से, दूर चले जाओ, यहाँ से।’
राजो उठी और अपने बेटे को खाना बनाने लगी। कुछ ही देर में वह चुपचाप रोटी के टुकड़ों को दाल में भिगोकर चबा रहा था। राजो को लगा जैसे सामने एक अजगर बैठा हो और वह धीरे-धीरे छोटे-छोटे रूप में बन गाँव के परिवार के अन्य सदस्यों को निगल रहा है, वह सिर झुकाए सिर्फ अपना खाना बनाती रही और सोचती रही। आग उसके हाथों को जला देना चाहती थी, आँसूओं की लहरें उसकी रसोई की दीवारों से टकराना चाहती थी। ‘मैं अब किसको दोष दूँ, मैंने थोड़ा सिखाया था उसे कि वह उस गंदगी में उतरे जिसके छींटों से सना शरीर लेकर वह यहाँ आएगा।’
सन्नाटे के बीच में उसे एक धुंधली सी शोर मचाती घँटी सुनाई दी। ये घँटी शायद नंदी बैल के गले में बँधी थी जिससे वह हर बार पूछती रही है पर उसने आज सब अनसुना कर दिया था। यह फिर ये गूगा देवता के मंदिर की घँटी होगी, जिससे वह बार-बार अपने बेटे के आने का समय पूछती थी, पर गलती शायद उसी की है उसने यह क्यों नहीं पूछा कि किस हालात में आएगा, ज़हर से भरा हुआ, अगर वह पूछती तो नंदी बैल सच बता देता, पर अपने बेटे के आने के सिवा उसने कुछ मांगा ही नहीं दोष सिर्फ उसका ही है।
राजो ने दो चपातियाँ बनाई और एक कोने में रख दिया और फिर एक गहरे शून्य में कहीं खो गई। वह थक गई है, अब किससे बात करे। अगर वह किसी से सलाह लेती है तो फिर यह ख़बर आग की तरह पूरे गाँव व उसके रिश्तेदारों के पास पहुँच जाएगी। इससे तो अच्छा है कि अपने अंदर गर्भ की तरह पलते सन्नाटों और भविष्य के सवालों से बात करती रहे। रात के अँधेरे में वह सीढ़ियों से नीचे उतरी। नीचे बेटे के कमरे में रोशनी बिखेरता बल्ब जल रहा था। वह उस रोशनी को नफरत की निगाह से देखकर अपने कमरे के अंधेरों को गले लगाकर चुपचाप बिस्तर पर पड़ गई।
उसके निरंतर जागते मन ने कहा,‘आखि़र तुम्हारा इकलौता बेटा है वह और तुम जग हंसाई की बात करती हो, बड़ी स्वार्थी हो तुम, जब वह तुमसे दूर था तो उसके लिए मंदिरों की चैखटें नापती थी और वह अब बेचारा किसी अंजानी मुसीबत में फँसकर अपने को रोग लगा बैठा है तो तुम उसका साथ न देकर उसे कीचड़ समझ कर अपनी सफेद शाॅल को उससे बचाती फिर रही हो।’
सुबह बूढी माँ ने अपने बेटे को अपने पास बुलाया और धीरे से कहा, ‘बेटे तुमने मेरे पास आकर मेरी कई उमंगों को जगाया और फिर कुछ ही पल में मेरे सूखे ख़्वाबों की दीवाली के अंसख्य दीयों को पल में बुझाने पर मजबूर कर दिया। बस तुम्हें मेरा एक आदेश मानना होगा, जो तेरे मेरे और इस समाज की भलाई के लिए ठीक होगा। तुम सुबह तड़के ही फिर से उसी रास्ते पर निकल जाना, जिस पर से तुम मेरे खोए भाग जगाने आए थे, मैंने तुझे त्याग दिया है, अगर तुम मेरा कहना नहीं मानना चाहते हो तो तुम्हें अपना सारा संसार खुद बसाना होगा। मैं नहीं चाहती हूँ कि तेरे कारण ये समाज मेरे लिए नफ़रत के बीज बोए, जिन्हें मैं बुढ़ापे में नहीं काट सकती हूँ। तेरी बीमारी की बात सिर्फ़ मुझे व तुझे मालूम है। अगर तुम चाहो तो मेरी राख के साथ ही यह राज़ भी दफ़न हो सकता है। बस चुपचाप तड़के निकल जाना, वहीं जहाँ से वापिस आने में तूने मुझे पल-पल अपने ख़्यालों में दौड़ाया है, अब न जाने वो खुमारी कहाँ गई, जिस खुमारी में तेरे इंतज़ार में जीती थी। बस मैंने निश्चय कर लिया है।’
राजो ने मन के दरिया के एक किनारे को कहा, ‘बस तुम सदा दूसरी ओर ही रहना, तुम कभी इस किनारे से मिलने की कोशिश न करना।’
राजो बिस्तर पर पड़ तो गई पर आज उसको नींद को अपनी चैखट में अंदर आने का न्यौता नहीं दिया। जिन आँखों को नींद चाहिए वहाँ आँसूओं की धाराएँ फूट रही थी।
स्वार्थी मन के छोटे राक्षस ने अँधेरे में उछलकूद मचाना शुरू कर दी। वह बोला,‘ वाह री माँ, बड़ी स्वार्थी हो गई हो तुम, अपनी जग हसाई से बचने के लिए अपनी किस्मत के आसमान पर मँडराते काले बादलों से दूर भागना चाहती हो, तुम हो न हो कलयुग की माँ ही लग रही हो वरना ऐसा कभी नहीं सोचती। नदी के किनारे छप्पर में रह कर बरसात में सूखे की दुआ कर रही हो।’
राजो ने अपनी रजाई को परे फेंका और उसके कमरे में घूमते राक्षस के बच्चे को अंधेरे में कान से पकड़ लिया, ‘मैंने नहीं कहा था उसे कि वह इस माँ के आँचल को कंलकित करता, मैंने नहीं सिखाया था उसे उस ग़लत काम से, नहीं, वह मेरा बेटा नहीं हो सकता, मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकती ।’ वह नन्हा राक्षस रोता हुआ दूर भाग गया था।

सुबह तड़के उठकर राजो ने सबसे पहले देसी घी में बहुत से परांठे बना दिए और उन्हें कपड़े में बाँध कर बीच में अचार डाल दिया। उसका बेटा सुबह उठ गया था। वह सचमुच ही जा रहा था। एक सनसनी भरी चुप्पी राजो और उसके बेटे के बीच की तंग घाटियों में फैली थी।
राजो की जुबान शरीर के अंदर ही थरथरा रही थी पर उसने अपने सीने पर बड़े- बड़े पत्थर रख लिए थे और जुबान को जैसे सी लिया हो। उसके शरीर के अंदर आँसुओं के झरने फूट रहे थे, वह अपने इकलौते लाल को किसी जंग के लिए नहीं बल्कि समाज से बेदखल कर रही थी। ये उसका स्वार्थ नहीं, समाज के प्रति उसकी सोच थी।
राजो का बेटा तिलक राज शर्मिंदा था, अपराध बोध से पीढ़ित था, पर राजो के सामने कुछ नहीं बोल पाया। वह जड़ हो गया था। वह सिर्फ चले जाना चाहता था। उसने न सपने सजाए थे न उन सपनों के बिखरने का डर था।
काली स्याह रात जो खत्म न होने का नाम नहीं ले रही थी। वह अब जल्दी ही खत्म हो चुकी थी। अपनी माँ के दिए परांठों को उपहार समझकर अपने छोटे से अटैची में रखकर तिलकराज ने अपनी माँ के पाँव छू दिए। माँ के हाथ आशीर्वाद के लिए उठ खड़े हुए, पर वह अब क्या आशीर्वाद दे सकती थी। वह अपनी जगह पर जड़ हो चुकी थी। तिलक राज सुबह के धुंधलके में आँगन को पार कर चुका था। वह जा रहा था। अब शायद ही कभी वापिस आएगा। राजो के आंगन में जैसे बादल उमड़े। वह एक दम से नंगे पाव ही दौड़ी। ‘नहीं राज कुमार, रुक जाओ, मैं हार गई, तुम अब कहीं नहीं जाओगे, समाज को मैं देख लूँगी, मुझे माफ़ कर दे, हम जीएँगे।’
और दोनों फिर से सलेटों के अपने घर के ठंडे कमरे में बड़ी देर तक रोते रहे।

— संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857