कविता

वक्त

फिसल जाने दो वक्त को
रेत के मानिंद हथेलियों से
वक्त का पहिया कब रुकता है?
किसी के रोकने से
वक्त का फितरत है
लम्हों में गुजर जाना।
लम्हें फैसला करते हैं
सदियों का
गुजरे वक्त में की गई खता
भारी पड़ती है आने वाले वक्त पे
वक्त ही है ऐसा मरहम
जो गहरे जख्मों को करती है फना
गुजरता वक्त बन जाती है सदियां
सदियों से बनती है दास्तां
वक्त की आंधी जो चली
मिट जाती है सदियों की दास्तां
वक्त के आगे बेबस है
क्या इंसा……क्या ख़ुदा!!!
— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P