लघुकथा

ऊपरवाले

प्रतियोगी परीक्षाओं के बाद रिक्त पदों पर बहाली की अपनी माँग को लेकर कई हजार अभ्यर्थियों का समूह पिछले कई दिनों से राजधानी में धरना प्रदर्शन के अपने लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग कर रहा था लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं नहीं रेंग रही थी।
अभ्यर्थियों का क्षोभ बढ़ता जा रहा था। उन्हें रोकने का प्रयास करते पुलिसकर्मियों का धैर्य भी अब जवाब देने लगा था कि उन्हें ऊपर से आदेश आ गया।
कुछ देर बाद सिपाहियों की लाठियाँ सक्रिय हो गईं और धरना दे रहे युवक युवती तीतर बितर हो गए। उनमें से किसी का फोन बजा, शायद ऊपर से कोई आदेश था और फिर अगले ही पल भाग रहे लोग उसकी आवाज पर लौट पड़े।
कुछ देर बाद नजारा बदल गया। भागनेवाले लौट आए थे। लाठियों वाले हाथ भी बदल गए थे। मैदान कुरुक्षेत्र बन चुका था और ऊपरवाले मुस्कुरा रहे थे।
दूर कहीं बैठी इंसानियत रो रही थी।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।