कविता

सफर

बड़ी अजब है रीति यहाँ की
सबको बस चलते जाना है।
बिना कहे बिन बोले कुछभी
यह सफर पूर्ण हो जाना है।
सांसों की डोरी का ये बन्धन
ये संसार मुसाफिर खाना है।
आते हैं यहाँ कितने हर दिन
वापस कितनों को जाना है।
भूले रहते इसको हैं सबजन
ये तो दो दिन का ठिकाना है।
सभी सफर पर हैं फिर भी वे
सत्ता ही इसको मान चले हैं।
सांसों की डोरी तक है नाता
किसकी बोलो यहाँ चले है।
मानवता का ये दामन थामो
हँसते ये सफर कट जाना है।
आया है जग में जो भी जीव
इक दिन उसको तो जाना है।
मानों इतना बस तुम दिल से
जग एक मुसाफिर खाना है।

— डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”

डॉ. सरला सिंह स्निग्धा

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