लघुकथा

नजरिया

ठंड का प्रातःकालीन समय।हवाओं में ठंडकता घुल रही है।हल्की-हल्की छवाएँ भी चल रही है।इस कारण थोड़ी सिहरन महसूस हो रही है।ठीक ऐसे ही समय मे तीन दोस्त प्रातः कालीन सैर करते हुए खेत-खलिहानों की तरफ निकल जाते हैं। ऐसे प्रातःकालीन सौंदर्य को देखकर,एकटक देखते हुए तीनो दोस्त ठिठककर रह जाते हैं। और अनायास अपने आप बोल उठते है “वाह!कितना प्यारा मनोरम दृश्य है।”
प्रकृति के इस अनन्त रमणीयता को देखकर सिर झुकाते हुए पहला दोस्त बोल पड़ता है। “वाह!यदि यह हंस चिड़िया मुझे मिल जाए तो बाजार में अच्छे दाम मिल जाएंगे।”
दूसरा दोस्त अपनी थैली को सहलाते हुए बोल पड़ता है। “वाह!यदि इस हंस चिड़िया को शिकार करके खाने को मिल जाए तो मजा आ जाए।”
तीसरा दोस्त जीभ को होठों से घुमाकर चटकारा लगाते हुए कहता है।
दूसरे और तीसरे दोस्त के इस बेवकूफी भरी बातों को सुनकर पहला दोस्त कहता है- “तुम लोग इतने निर्दयी कैसे हो सकते हो? प्रकृति के साथ-साथ यह हंस चिड़िया भी ईश्वर की सुंदरतम रचना है।और इसका अपमान करने का तुम्हें कोई अधिकार नही है। प्रकृति का यह अभिन्न अंग है।इस प्रकृति एक-एक कण हमारे लिए वरदान है।हमारे लिए उपयोगी है। हम इसकी संरक्षण करें न कि इसका अहित।आप लोगों को प्रकृति की अनुपम सौंदर्य को दृष्टिपात करना होगा।अर्थात अपनी नजरिया में सौंदर्य भरना होगा।”
इतना सुनकर पहला और दूसरा दोस्त निःशब्द हो गए और एक दूसरे को देखने लगे।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578