लघुकथा

दिमाग का खेल

फ़ोन की घंटी से मेरी नींद खुली। उधर से मेरा दोस्त अनूप अपने किसी दोस्त के घर चलने के लिए बोला।
मैंने जानना चाहा, मगर मिलने पर बताने और जल्दी तैयार होने को बोला।साथ ही वह यह भी बोला कि वह थोड़ी देर में पहुंच रहा है।
मुझे महसूस हुआ कि उसके स्वर में कुछ चिंता थी।
खैर…..! मैं बिस्तर से निकला और नहा धोकर तैयार हो गया।
श्रीमती जी ने शायद हमारी बातें सुन ली। जब तक मैं तैयार हुआ, दो जगह नाश्ता हाजिर हो गया।
अनूप भी पहुंच गया।न नुकुर के बाद श्रीमती जी का कहना टाल नहीं सका। मगर चाय पीते हुए ऐसा लग रहा था कि वो रो देगा।
मैं तो कुछ बोल न पाया लेकिन श्रीमती जी ने पूछा ही लिया तो वह खुद को रोक न सका और रो ही पड़ा।
अब मुझे बोलना पड़ा – यार रोना बंद कर पूरी बात बता।तभी कुछ हल निकल सकता है।
अनूप ने संक्षेप में सारी कहानी कह दी।
अब श्रीमती जी ने हम दोनों से कहा – मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि आप लोग अब तक हाथ पर हाथ रखकर क्या बहन के मरने के इंतजार करते रहे।
मुझे तो कुछ पता ही नहीं था, मगर अनूप भी कुछ बोल न सका।
श्रीमती जी ने आदेशात्मक अंदाज में कहा मैं भी  साथ चलती हूं।सारा विवाद आज ही खत्म हो जायेगा।बस आप दोनों को सबकुछ चुपचाप सुनना होगा। बाकी मैं संभाल लूंगी।
सहमति के अलावा कोई रास्ता न था।
हम तीनों बहन के घर पहुंच गए। हल्के प्रतिरोध के बीच श्रीमती जी बहन से मिलीं। क्या बात हुई, ये तो पता नहीं, मगर जब वो बाहर आई तो संतोष का भाव उनके चेहरे पर था।
चलते चलते एक बार सबको ये ताकीद करना भी न भूली कि इस बात का ध्यान रहे कि यदि मेरी बहन को खरोंच भी आती है, तो आप सपरिवार जेल में सड़ने के लिए तैयार रहिएगा।अब तक जो आप सबने किया वो सब रिकार्ड हो गया है। यह मत सोचिए कि मेरा मोबाइल छीन कर आप बच जायेंगे। पुलिस कप्तान मेरा भाई है, उसे मैंनें रिकार्डिंग भेज दिया है।
बस! वो तब तक चुप रहेगा, जबतक आप लोग शरीफ़ बने रहेंगे।
और हम वापस हो गए।
श्रीमती जी के दिमाग ने गंभीर होती समस्या का हल चुटकियों में दे दिया।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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