कविता

प्रकृति

आया मास  जेठ का
प्रचंड दावानल बरसाते आदित्य …
 मादकता   टपकाये महुआ
देखो   पात -पात
गुलमोहर  की डाल हो रही  अंगारों सी लाल
  मंद पड़ रहे  स्वर कोयल के डाल डाल
कर स्वागत बंसत  का अब   पुष्प भी  कुम्हलाए ..
झुलसी गुलाब की कली- कली
अब ना रहा मधुमास …
चिल चिलाती धूप में ,हहकाती लू संग  अकुलायें   लीची ,आडू़,   आम  के  वृक्ष
अधपकी  कुसुमित इमली का   व्याकुल पेड़
पानी की आस में
सुखे से दुखी धरती बेजान
देखे गगन की ओर
कुछ बरसे शीतल  जल
 बच जाये मेरी सन्तानें
शीतल हो तन मन
राह तकती है कब से
बदरा बरसों घन घोर
तरसती जल की बूंदों को ..
देख धरती की पीर
गगन दे रहा सीख …
जो तुम काटते नही हरे भरे वन
ना   उजड़तें नीड़ जीव जन्तु का ….
ना काटते  वन सम्पदायें
ना झुलसता जन जीवन
 नही हुई देर अभी भी
रोप दों पेड़ों को …..।
घिर आयेगें बदरा
पानी बरसायें ..
समझो कुदरत के संकेत
 पेड़ से बादल
बादल से पेड़
दोनो  है पूरक
ना समझे समय रहते
सब झुलसेगा ।
ना रहेगा जीवन ….।
— बबिता कंसल 

बबीता कंसल

पति -पंकज कंसल निवास स्थान- दिल्ली जन्म स्थान -मुजफ्फर नगर शिक्षा -एम ए-इकनोमिकस एम ए-इतिहास ।(मु०नगर ) प्राथमिक-शिक्षा जानसठ (मु०नगर) प्रकाशित रचनाए -भोपाल लोकजंग मे ,वर्तमान अंकुर मे ,हिन्दी मैट्रो मे ,पत्रिका स्पंन्दन मे और ईपुस्तको मे प्रकाशित ।