सामाजिक

रिश्ते

प्रीत गर समर्पण बनेगी, जीवन भर संग संग चलेगी,
स्वार्थ का अहसास गर हो, प्रीत बोझ बनने लगेगी।
रिश्ते नाते आजकल सब, अर्थ की नींव पर खडे,
अहंकार आधार हो तो, नींव कच्ची दरकने लगेगी।
वर्तमान दौर में अक्सर देखने सुनने में आता है कि परिवार में रिश्तों का महत्व कम होता जा रहा है। यहाँ तक कि पति पत्नी, पिता पुत्र, माँ बेटी जैसे प्रथम सोपान के रिश्तों में भी खटास दिखाई देने लगी है। आख़िर क्या है इसका कारण? विषय की गम्भीरता को समझते हुए अनेक परिवारों का अध्ययन तथा उन्हें समझने का प्रयास किया। यह समस्या दिन प्रतिदिन विकराल रूप लेती जा रही है जिसका प्रारंभ अति महत्वाकांक्षी तथा धनाढ्य परिवारों से देखने को मिलता है। कुछ काल पीछे जाकर देखें तो यह समस्या नगण्य ही थी।
रिश्तों के अपनत्व में मुख्य भूमिका हमारे संस्कारों संस्कृति तथा सभ्यता को समझने व अपनाने की होती है। बदलते परिवेश में जब संयुक्त परिवारों का महत्व नकारा जा रहा है तब संस्कार स्वयं धूमिल होते जा रहे हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत का हमको ज्ञान और उसके पालन का ध्यान ही नहीं है। यह सब बातें दोयम दर्जे की बताकर योजनाबद्ध तरीक़े से हमारी संस्कृति और सभ्यता पर प्रहार किए जा रहे हैं।
विज्ञापनों के द्वारा हमारे भारतीय पहनावे को पिछड़ा बताकर पश्चिमी पहनावे को प्रचलित करने के लिए महिमा मंडित कर हमारी सांस्कृतिक विरासत बदली जा रही हैं। अंग्रेज़ी को गौरवशाली बताकर भारतीय भाषाओं को तिलांजलि दी जा रही है। परिणामस्वरूप पिताजी डैड और माता जी मम्मी बन गये। चाचा ताऊ मामा गली मोहल्ले वाले सब अंकल तथा बुआ चाची ताई सब आंटी बन गये। घटते सिमटते संयुक्त परिवार, प्रत्येक परिवार में सिमटते बच्चे, सिकुड़ते रिश्ते और इसमें भी ‘मैं और मेरा’ का अहसास रिश्तों पर कुठाराघात कर रहे हैं।
आज रिश्तों का आधार केवल अर्थ की ओर केन्द्रित होता जा रहा है। परिवार के प्रति समर्पण भाव तिरोहित हो रहा है। आवश्यकता से अधिक ख्वाहिशें सिर उठाने लगी हैं। दिखावे की बढ़ती होड़ ने परिवारों का तानाबाना खोखला कर दिया है। विडम्बना देखिए कि ऐसा करने की दौड़ में अधिकतर तथाकथित पढ़े लिखे लोग ही शामिल हैं।
बढ़ती अपेक्षाओं और घटते समर्पण ने रिश्तों को खोखला कर डाला जिसके कारण परिवार में प्यार सम्मान स्नेह ममता अपनत्व जैसे तत्वों का अभाव बढ़ता जा रहा है।
अपने कर्तव्य और दायित्व को भूल कर हम केवल अधिकारों की बात करने लगे हैं । सनातन का सार परहित पर ध्यान के साथ वसुधैव कुटुम्ब का भी है। परन्तु इस सबके विपरीत हम ‘मैं’ में केन्द्रित होते जा रहे हैं। रिश्तों के संसार को समृद्ध रखने की पहली शर्त होती है बिना किसी अपेक्षा के समर्पण। जब आप अपेक्षा त्याग कर समर्पण करते हैं तब कर्तव्य बोध होता है। कर्तव्य निर्वहन रिश्तों का आधार है। बदलते वैश्विक परिवेश में भारतीय मूल्यों संस्कार संस्कृति एवं सभ्यता के पोषण प्रेषण एवं संवर्धन हित हम सब अपने कर्तव्यों के निर्वहन में निःस्वार्थ भाव से अग्रसर होकर अपने, धर्म- राष्ट्र के साथ साथ परिवार व रिश्तों को भी समर्थ तथा सुदृढ़ करें।
— डॉ. अ. कीर्ति वर्धन