मुक्तक/दोहा

मुक्तक

सच ही तो बताया था, झूठ तो नहीं बोला,
इशारा ही किया था, परदा तो नहीं खोला।
नग्न था सच मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनाना,
प्रत्यक्ष साक्ष्य, ओढ़ा तो नहीं झूठ का चोला।
हिन्दुत्व के पुरोधा, धर्मनिरपेक्ष हो रहे हैं,
तुष्टिकरण के आगे, लम्बलेट हो रहे हैं।
ओढ़ लेते खामोशी, ज्ञानवापी बात पर,
दोहरे चरित्र वाले, मटियामेट हो रहे हैं।
मानाकि विकल्प अभी, सामने कोई नहीं है,
डूबते हुए का हाथ भी, थामने कोई नहीं है।
कश्ती है बीच मँझधार, किनारा भी दूर है,
क़ातिल खड़ा है सामने, बचाने कोई नहीं है।
— अ कीर्ति वर्द्धन